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जगन्नाथ (काका) पाटीदार, (डूब प्रभावित गाँव कुंडिया, जिला बड़वानी) के अवसान की खबर जब आई तब मानो नर्मदा बचाओ आदोलन की नींव ही हिल गई। सरदार सरोवर के पूरे डूब क्षेत्र में “काका” के नाम से जाने वाले जगन्नाथ पाटीदार और उनका परिवार नर्मदा बचाओ आन्दोलन का प्रथम परिवार रहा है, यह कहने में कोई झिझक नहीं। शायद ही किसी ने निमाड़ की धरती पर सरदार सरोवर बाँध का आधी सदी से ज्यादा वक्त तक कमर कसके विरोध किया हो। काका का बाँध विरोधी संघर्ष 1970 के दशक में ही चालू हो गया था जो उनके अंतिम दम यानी 17 सितम्बर 2020 को जब बाँध का पानी उनके घर में दूसरी बार घुसा तब तक आंदोलन के प्रखर नारे “कोई नहीं हटेगा, बाँध नहीं बनेगा” के साथ जारी रहा। काका ने कभी भी न तो अपने गाँव कुंडिया को छोड़ा और न ही अपने घर, खेत का मुआवजा लिया। काका उन कुछ परिवारों में से है जिन्होंने अपने घर का सर्वे तक नहीं करवाया।
आज जब काका नहीं रहे, तब सरदार सरोवर बाँध के विरोध की उनकी लड़ाई, जो निमाड़ में 1970 के दशक से ही चालू हो गई थी और जिसे उन्होंने अपने जुबानी इतिहास के रूप में दर्ज की है, का एक अंश यहाँ पेश कर रही हूँ। अक्सर इस प्रकार के जन आंदोलनों का इतिहास प्रभावित अथवा संघर्ष करने वाले व्यक्ति खुद ना तो बताते अथवा लिखते हैं जबकि यह इतिहास उनके द्वारा बेहद गहराई से देखा, जाना और जिया गया होता है। अपने इस मौखिक इतिहास में काका एक प्रचलित मान्यता से अलग इतिहास बताते हैं कि सरदार सरोवर का बड़ा बाँध जवाहरलाल नेहरु की देन है।
जगान्नाथ का का मोखिक इतिहास....
सरदार सरोवर डेम. फोटो: NBA |
आ. जगन्नाथ (काका) पाटीदार फोटो क्रेडिट: नंदिनी ओजा |
जगन्नाथ (काका) पाटीदार:
“1962-63 में ही मुझे सरदार सरोवर बाँध के बारे में जानकारी मिलने लगी थी। उन दिनों निमाड़ में यह चर्चा आम थी कि नर्मदा पर बाँध बनने वाले हैं। गुजरात और मध्यप्रदेश सरकारों के बीच बाँध की ऊँचाई को लेकर सहमति नहीं थी। मध्यप्रदेश सरकार हरणफाल में बाँध बनाने के पक्ष में थी। जबकि गुजरात सरकार 530 फूट ऊँचा सरदार सरोवर बनाना चाहती थी। हालांकि नेहरु जी के समय गुजरात में 210 फूट ऊँचा बाँध बनाने की मंजूरी दी गई थी। नेहरु जी ने ही इस 210 फूट ऊँचा बाँध का नवागाम में शिलान्यासस किया था जिसका शिलालेख आज भी वहाँ लगा हुआ है। बाँध की ऊँचाई पर आम सहमति बनाने के लिए संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की चर्चा लंबे समय तक चलती रही। गुजरात की 530 फूट ऊँचाई की माँग पर अड़े रहने के कारण इस चर्चा का कोई हल नहीं निकल पाया।
इस दौरान भी जारी गतिविधियों की खबरें अखबारों से मिलती रहती थी और हम उसकी प्रतिक्रिया में विरोध करते रहते थे। हम राजधानी भोपाल तक जाते थे, प्रदर्शन करते थे, विधानसभा में घुसने की कोशिश करते थे, गिरफ्तारियाँ भी देते थे। संघर्ष के दौरान मैने भी कई बार गिरफ्तारी दी थी।
जब मध्यप्रदेश में प्रकाशचंद्र सेठी मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने 465 फूट का प्रस्ताव रखा था जो बहुत ज्यादा था। हालांकि गुजरात 530 फूट बांध की ऊँचाई पर अड़ा हुआ था। अखबार से हमें जब यह बात पता चली तो दोनों ही पार्टियों (कांग्रेस और जनसंघ) के लोग इसका विरोध करने के लिए भोपाल गए। विधानसभा के सामने प्रदर्शन था। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोकने की कोशिश की। इस दौरान करीब 10 हजार प्रदर्शनकारियों ने गिरफ्तारियाँ दी। गिरफ्तारी के बाद उसी स्थान पर 4-5 कोर्टें लगाकर सभी को 3-3 दिनों की सजा सुनाई गई। लेकिन जेल में उपलब्ध जगह के अनुसार सबको अलग-अलग जगहों पर भेजा गया। इस इलाके के 300-400 लोगों को इंदौर में रखा गया था जिनमें मैं भी शामिल था। इसके पहले गोविंद नारायण सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब भी हम एक बार प्रतिनिधिमंडल लेकर गए थे। सिंधिया भी थी और जब मिली जुली सर्कार बनी थी और जनता पार्टी की सर्कार थी तभी हमने विरोध जारी रखा।
आ. जगन्नाथ (काका) पाटीदार फोटो क्रेडिट: रेहमत |
हमारे निमाड़ क्षेत्र को डुबाने के लिए जो भी सरकार बाँध की ऊँचाई बढ़ाने का प्रयास करती, हम उसका विरोध करते थे। हमारी माँग थी कि सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई वही 210 फूट रखी जाए जिसका नेहरु जी ने शिलान्यास किया था। जब राज्य सरकारें इस मामले को हल नहीं कर पाई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से हस्तक्षेप की माँग की गई। प्रधानमंत्री ने राजनैतिक लाभ-हानि का आंकलन किया। गुजरात या मध्यप्रदेश किसी को भी वे नाराज नहीं करना चाहती थी इसलिए इस मामले को उन्होंने एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया।
आज कई सामाजिक संगठन हैं जो इस तरह के मामलों में आवाज़ उठाते हैं। लेकिन, उन दिनों आज की तरह कोई सामाजिक संगठन इस संघर्ष से जुड़ा हुआ नहीं था। राजनैतिक दल ही यह लड़ाई लड़ रहे थे। लड़ाई जनता से मिले चंदे से ही लड़ी गई। पहले जनसंघ और बाद में नर्मदा ट्रिब्यूनल अवार्ड पारित होने के बाद कांग्रेस और जनसंघ दोनों इस मुद्दे पर साथ आई। तब भी लड़ाई जनता के पैसों से ही लड़ी गई। विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने का अपना खर्च हम खुद उठाते थे। आंदोलन का यह दौर जब शुरु हुआ तब मेरे जैसे कुछ ऐसे कार्यकर्ता भी इससे जुड़े रहे जो पिछले दौर की लड़ाई से जुड़े थे तथा उन्हें मुद्दों की समझ थी।
इंदिरा गांधीने ट्रिब्यूनल बिठाया और ट्रिब्यूनल ने तिन-चार साल जाच परख करने के बाद यह हुआ की सरकारों का बहुत दबाव आने लगा था और जनता पार्टी सर्कार आ गई थी, तब केन्द्र में मोराजी देसाई प्रधान मंत्री थे। और मध्यप्रदेश में जनसंघ के वीरेन्द्र कुमार सकलेचा मुख्यमंत्री बने थे। (नर्मदा जलविवाद न्यापयाधिकरण का गठन अक्टूबर 1969 को किया गया था जिसने अपनी रपट दिसंबर 1979 को प्रस्तुत की जब प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिहं थे )
प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को गुजरात का फायदा करना था। बांध लंबे समय से रुका हुआ था। मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने और उन्होंने ट्रिब्यूनल पर दबाव डालकर गुजरात के हित में बाँध की 455 फूट ऊँचाई पर फैसला करवा लिया। सत्ता मिलने के बाद वीरेन्द्र कुमार सकलेचा भी उनके साथ हो लिए थे। हैरत की बात थी कि मध्यप्रदेश में सरदार सरोवर का विरोध करती रही जनसंघ के मुख्यमंत्री ने भी पाला बदलकर बाँध का समर्थन शुरु कर दिया था। ट्रिब्यूनल ने कागजों और जूठे आधार पर फेसला दिया।
ऊपर के नेतृत्व का सरदार सरोवर समर्थक भूमिका का असर नीचे भी पड़ा। तब हमारे क्षेत्र (बड़वानी) के उमरावसिंह पटेल मध्यप्रदेश में मंत्री बने थे। पार्टी नेतृत्व् ने उन्हें भी दबा दिया था। इससे क्षेत्र में चर्चा चलने लगी थी कि तुम्हारी बाँध विरोधी पार्टी (जनसंघ) का आदमी इस जरुरत के समय यहाँ क्यो नहीं है। उन्हें इस समय यहाँ होना चाहिए था। इसके बाद बड़वानी में एक बड़ी मीटिंग हुई। दोनों पार्टियों के लोग इसमें शामिल हुए। साथ में लड़ने का निर्णय लिया गया। मुख्यमंत्री से मिलने आदि की चर्चा होने लगी। फिर भोपाल गए और फिर गिरफ्तारियाँ दी। धाँधल चलती रही ।
फिर जनसंघ के ही बाबुलाल सेन (ओझर) ने बड़वानी में पुराने कलेक्टर कार्यालय के सामने अनिश्चितकालीन अनशन शुरु कर दिया। उन्होंने कहा मैं कभी बाँध बनने नहीं दूँगा। सरदार सरोवर मेरी पीठ पर ही बनेगा। उनके अनशन को भी भारी समर्थन मिला था, पूरा मैदान पब्लिक से भरा रहेता था। लेकिन वे केवल 3-4 दिन ही अनशन कर पाए। जब सरकार का दबाव आया तो वे एक रात अचानक गायब हो गए।
फिर यहाँ की पुब्लिक ने हंगामा किया - बड़वानी के काशीराम काका, रामलाल मुकाती, मदन मामा आदि कांग्रेसी नेताओं ने बाँध पर ट्रिब्यूनल के फैसले और जनसंघ के नेताओं द्वारा अपनी बाँध विरोधी भूमिका बदलने को साजिश बताया। एक बार जब उमरावसिंह पटेल बड़वानी आए तो कोंग्रेस ने सर्किट हाउस में भारी हंगामा किया, पथराव हुआ। लाठी चार्ज हुआ। करीब साल-डेढ़ साल यह दौर चला और खत्म हो गया।
तब जनता पार्टी की सरकार थी और हमारे नेताओं ने समझाया कि विरोध मत करों, तुम्हें खूब मुआवजा मिलेगा। जमीन के बदले जमीन मिलेगी। डूब भी ज्यादा नहीं आएगी। डूब सिर्फ नर्मदा किनारे के गड्ढों और नालों तक ही सीमित रहेगी। फिर हमने उमरावसिंह से पूछा कि हमें यह तो पता होना चाहिए कि आखिर पानी आएगा कहाँ तक? इस पर दो दिनों के भीतर आनन फानन कुछ स्थानों पर बाँस बल्लियाँ लगाई गई थी। बाद में वहीं पर डूब के पत्थर गाड़े गए। हमें बताया गया कि पानी इन बल्लियों से एक इंच भी आगे नहीं जाएगा। वैसे तो पानी इनसे बहुत दूर रहेगा लेकिन अतिवृष्टि या आपात स्थिति में ही यहाँ तक पहुँच सकता है। और सब ठन्डे होकर बेठ गये।
और अब आगे का याद आया! बाँध विरोधी रणनीति बनाने के लिए कोटेश्वर (निसरपुर) में एक शिविर रखा था। 3-4 दिन चले इस शिवरि में मैं भी शामिल था। इस शिविर में गुजरात के गाँधीवादी हरिवल्लभ पारिख भी आए थे। हरिवल्लभ पारिख का आश्रम भी एक बाँध से डूबने वाला था जिसे उन्होंने विरोध कर रुकवाया था। उन्होंने काफी जोर लगाकर फिर नई कार्यकारिणी समिति बनवाई जिसमें पारसमल करनावट, अंबाराम मुकाती, शोभाराम जाट आदि शामिल थे। ये लोग पहले कभी गुजरात में हरिवल्लभ जी के आश्रम में गए थे और हरिवल्लरभ जी को डूब क्षेत्र में आने का निमंत्रण देकर आए थे। इस समिति के अध्यक्ष काशीनाथ दादा त्रिवेदी तथा कोषाध्यक्ष पारसमल करनावट थे। इन्होंने गाँवों से चंदा जमा कर सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की थी जो तकनीकी कारण से खारिज हो गई थी..."
जगन्नाथ काका द्वारा बताया गया मौखिक इतिहास लम्बा है जिसमें उन्होंने नर्मदा बाँध को लेकर आगे के संघर्ष की बात भी विस्तार से बताई है। परन्तु लेख की शब्द सीमा के कारण अभी बस इतना ही।
नंदिनी ओझा
(ट्रांसक्रिप्शन/लिप्यांतरण और संक्षिप्तिकरण : रेहमत, मंथन अध्ययन केंद्र, और नर्मदा बचाओ आन्दोलन के कार्यकर्ता )
नंदिनी ओझा नर्मदा बचाओ आन्दोलन की कार्यकर्ता रही हैं और पिछले डेढ़ दशकों से नर्मदा बचाओ आन्दोलन के मौखिक इतिहास पर काम कर रही है। वे फ़िलहाल ओरल हिस्ट्री एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया की अध्यक्ष हैं। अधिक जानकारी के लिए देखे: https://oralhistorynarmada.in/
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Photo: Champaben Tadvi by Nandini Oza |
Activism consists of efforts to promote, direct or intervene in social, political, economic or environmental reform with a desire to make changes in society. (Wikipedia)
Activism is direct and noticeable action to achieve result usually a political or social one. (Cambridge Dictionary)
Narmada Bachao Andolan Program at Hapeshwar. Photo Credit: Shripad Dharmadhikary. |
“Usually written by victors”This is best explained by a well known Novelist from Africa, Chinua Achebe:
"Until the lions have their own histories, the history of the hunt will always glorify the hunter."A popular saying in Africa helps understand it better:
"Until the history of Africa is told by Africans, the story of greatness will always glorify the imperialists."
Oral History Recording at Village Koliyari. Photo Credit: Shripad Dharmadhikary. |
"Information about a historical event or period that is told by people who have experienced it.”
" harnesses the power of personal narrative to expose larger issues of inequality.”What is important is that oral history also challenges the mainstream history of a nation/state or the history of dominant forces and or the history by those in power by people struggling for justice and equity. To explain this better, take the example of the Tata Central Archive located in Pune, India which displays prominently in the archive and its website information on the various Tata companies and Tata luminaries with digital and print documents, photographs, the awards and medals received by Tata luminaries, audio and Video recordings of speeches of people related to Tata companies and its founding members. For details see:
* Dr. Mridul Hazarika, Vice Chancellor, Guwahati University:
“Oral history will take a central position in history in the days to come. Oral history recognizes the role of those people who appear to be least significant”.(3rd OHAI Annual Conference, Gauhati)
*Oral historian Allessandro Portelli says:
“Oral history gains significance with the increasing mistrust of the official history. Oral history is the history of the marginalised. Oral history is respectful of people’s ability to speak, it respects the freedom of expression, it is proud of people’s heritage and recognizes the ability of people to be authors and creators” (3rd OHAI Annual Conference, Gauhati)
“To me, the most important historical event of the last two decades has been the battle over the Narmada dam... The battle over the Narmada dam reflects a journey, a pilgrimage, and a recollection of 30 years of resistance...it demands a different kind of storytelling.” (The Hindu 9 March 2016)
Movements have helped bring social, political, economic, environmental equity and justice.
Movements have helped bring changes in policies and laws, for example laws like Right to Information Act, the Forest Rights Act, the POSH Act, etc are a result of people’s movements.
Movements have helped bring changes in institutions for regulation and governance. For example the setting up of the inspection panel by the World Bank to examine the projects it is funding, the environment impact assessment and public hearings for developmental projects, etc is an outcome of people's resistance.
Movements have helped bring changes in development discourse in the context of nation, national interest, and has pushed for sustainable development.