Wednesday 13 September 2023

नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का इतिहास

 

नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का इतिहास

2016-17 में (जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी) नर्मदा मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों को नकद मुआवज़ा दिया जाना चाहिए, और इसके अलावा (जैसाकि दी टेलीग्राफ अखबार में रिपोर्ट किया गया) - 

“न्यायाधीशों ने 4,897 परिवारों को जुलाई 31, 2017 तक अपनी ज़मीनें खाली करने के लिए कहा और ऐसा न किए जाने पर अधिकारी उन्हें ‘जबरन बेदखल’ करने के लिए स्वतंत्र होंगे।”

यह बुनियादी रूप से नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा बांध के निर्माण के साथ जोड़ी गई पुनर्वास और पुनर्स्थापन की शर्तों का उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय नर्मदा घाटी के लोगों के मौलिक अधिकारों के साथ-साथ उनके न्याय और गरिमा के अधिकारों को भी उन से छीन लेता है।  

क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के फैसले का सीधे तौर पर उल्लंघन करता है, इसलिए यहां बांध की ऊंचाई को लेकर गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश राज्यों की सरकारों के बीच उठे इस अंतरराज्यीय विवाद के इतिहास पर एक नज़र डालना महत्वपूर्ण है। यहां अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 के अंतर्गत वर्ष 1969 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के गठन; दिसंबर 1979 में सुनाए गए न्यायाधिकरण के फैसले; गुजरात के पक्ष में बांध की ऊंचाई को बढ़ाने के न्यायाधिकरण के इस फैसले के खिलाफ मध्य प्रदेश में निमाड़ बचाओ आंदोलन के नाम से शुरू हुए शक्तिशाली आंदोलन और इसके बाद, नर्मदा बचाओ आंदोलन के इतिहास को जानना बहुत ज़रूरी है। सरदार सरोवर परियोजना के इतिहास में विभिन्न राजनेताओं की भूमिकाओं को समझना भी ज़रूरी है, विशेष रूप से पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई की। बांध परियोजना, इससे जुड़े अंतरराज्यीय विवाद और बांध के खिलाफ उभरने वाले जन आंदोलन के इतिहास को इससे जुड़े विविध लोगों की ज़ुबानी सुनने के लिए देखें: https://oralhistorynarmada.in/early-history-of-the-movement/

यहां इस लंबे इतिहास की कुछ झलकियां पेश की गई हैं। 

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साल 1961 में प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे एक बांध की नींव रखी थी, जो आज के बांध से कहीं छोटा था। इस बांध को तब नवगाम बांध बुलाया जाता था, (और अब सरदार सरोवर परियोजना) और उस समय इस बांध की ऊंचाई सिर्फ 161 फ़ीट थी, देखें: http://www.sardarsarovardam.org/history-of-nwdt.aspx. लेकिन, गुजरात राज्य और उसके नेताओं को नर्मदा पर इससे कहीं ज़्यादा ऊंचा बांध चाहिए था। इसके चलते तटीय राज्यों के बीच में एक विवाद खड़ा हो गया क्योंकि नर्मदा पर बनने वाले इस बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने पर पड़ोसी राज्यों, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में सैंकड़ों एकड़ उपजाऊ कृषि भूमि और वन भूमि बांध के पानी में डूबने वाली थी। क्योंकि कम ऊंचाई का बांध गुजरात को मंज़ूर नहीं था इसलिए वर्ष 1969 में बांध की ऊंचाई और पानी के बंटवारे से जुड़े इस विवाद को एक न्यायाधिकरण को सौंपा गया। उस वक़्त प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थी। न्यायाधिकरण ने अपना फैसला 10 साल बाद, वर्ष 1979 में सुनाया, जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी। फैसला गुजरात के पक्ष में गया और बांध की ऊंचाई को 455 फ़ीट तक बढ़ा दिया गया। नर्मदा घाटी के लोगों के बीच आम मान्यता थी कि गुजरात के श्री मोरारजी देसाई के भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही न्यायाधिकरण के काम में तेज़ी आई और जनता पार्टी के सत्ता में होने के समय ही न्यायाधिकरण ने गुजरात के पक्ष में अपना फैसला सुनाया। बांध का निर्माण कार्य वर्ष 2017 में ख़त्म हुआ, जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में थी और गुजरात के ही श्री नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री थे।    



सरदार सरोवर बांध (फोटो विकिपीडिया के सौजन्य से)

इस शुरुआती इतिहास के कुछ पहलुओं को श्री मोरारजी देसाई ने गुजराती में लिखी गई अपनी आत्मकथा में बयां किया है और उसके कुछ पन्नों का  पहेले अंग्रेजी में अनुवाद नंदिनी ओज़ा द्वारा और अंग्रेजी से हिन्दी में  अनुवाद सिद्धार्थ जोशी द्वारा करके यहां साझा किया जा रहा है: 

मोरारजी देसाई लिखते हैं:

“वर्ष 1947-48 में, मुंबई राज्य [जिसमें उस समय वर्तमान गुजरात और महाराष्ट्र राज्य शामिल थे] में कई सिंचाई परियोजनाओं को लागू करने का निर्णय लिया गया। तापी और नर्मदा परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई लेकिन नर्मदा परियोजना से जुड़े आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण नर्मदा परियोजना का खाका उस समय तुरंत तैयार नहीं किया जा सका। सरदार वल्लभभाई पटेल और हम में से कुछ लोगों ने पहले तापी परियोजना का खाका तैयार करके उसे लागू करने और फिर उसके बाद नर्मदा परियोजना को शुरू करने का निर्णय लिया। जब इस प्रोजेक्ट की योजना बनाई जा रही थी तब मैं मुंबई राज्य का मुख्यमंत्री था। मैंने तब इस परियोजना को अंतिम रूप देने, इसके संचालन के लिए और इसके लिए ज़रूरी पूंजी इकट्ठी करने के लिए कुछ उद्योगपतियों को एक ‘निगम’ की स्थापना करने के लिए कहा था। मैंने उनसे वादा किया था कि जब तक उनके द्वारा किए गए निवेश की भरपाई की ज़िम्मेदारी सरकार के कंधों पर नहीं आती, तब तक इस परियोजना का प्रबंधन उन्हीं के हाथों में रहेगा। उस समय नर्मदा परियोजना सबसे कम लागत वाली थी और फिरभी सामान्य ब्याज का भुगतान कर पाना भी मुमकिन नहीं था। क्योंकि इस प्रस्ताव के प्रति ज़्यादा रूचि नहीं दिखाई गई, इसलिए इस बातचीत को यहीं छोड़ दिया गया। जब मुंबई सरकार ने पहली बार इस प्रोजेक्ट की योजना बनाई तो आंकड़ों की कमी की वजह से, बांध की ऊंचाई 300 फ़ीट तय की गई थी। गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों के अलग होने के बाद, वर्ष 1960 में श्री जवाहरलाल नेहरू ने इस बांध की नींव रखी।

“लेकिन, बजट की कमी की वजह से, बांध के निर्माण का कार्य शुरू नहीं किया जा सका। मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान राज्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए नर्मदा परियोजना का गहराई से अध्ययन करने के लिए सरकार ने वर्ष 1963-64 में खोसला आयोग का गठन किया। इस आयोग के अध्यक्ष एक काबिल अभियंता (इंजीनियर) और प्रशासक थे। उनका या खोसला आयोग के किसी और सदस्य का गुजरात से कोई लेना-देना नहीं था। आयोग ने सभी तरह की जानकारी इकट्ठी की, चारों संबंधित राज्यों के हितों को ध्यान में रखा[1], और किसी भी संबंधित राज्य के अधिकारों को प्रभावित किए बिना, नर्मदा के पानी के सबसे बेहतर इस्तेमाल का रास्ता दिखाने की कोशिश की। वर्ष 1965-66 में अपनी अंतिम रिपोर्ट[2] देते हुए इस आयोग ने नवगाम[3] में बनाए जा रहे बांध की ऊंचाई को कम से कम 500 से 530 फ़ीट तक बढ़ाए जाने की सिफारिश की। गुजरात ने इसे अपनी स्वीकृति दी और राजस्थान[4] ने भी इसे मान लिया। मध्य प्रदेश ने इस सिफारिश का विरोध करते हुए इसे स्वीकार करने से मना कर दिया। बांध की इस ऊंचाई की वजह से मध्य प्रदेश में करीब 99,000 एकड़ कृषि भूमि डूब में जाने वाली थी। इसके अलावा, जहां गुजरात को सिर्फ 150 मील तक के नर्मदा नदी के पानी को खोना पड़ता वहीं मध्य प्रदेश को करीब 700 मील के नर्मदा के पानी से हाथ धोना पड़ता। इन्ही कारणों की वजह से मध्य प्रदेश ने [खोसला आयोग की सिफारिशों का] विरोध किया। महाराष्ट्र, जिसमें नर्मदा सिर्फ 30 मील की ही दूरी तय करती है, उसकी सरकार ने मध्य प्रदेश के साथ हाथ मिलाकर बांध से पैदा होने वाली बिजली में ज़्यादा बड़े हिस्से की मांग की। मध्य प्रदेश के तीखे विरोध के कारण इस परियोजना को गुजरात में भी लागू करना मुमकिन नहीं था।

“चौथे आम चुनावों के बाद मैं भी केंद्र सरकार की कैबिनेट (मंत्रिमंडल) का सदस्य बन गया। मैं मार्च 1967 से लेकर 1967 तक सरकार में नहीं था। संविधान के प्रावधानों के अनुसार, केंद्र सरकार को अंतरराज्यीय जल विवादों के संबंध में फैसला लेने और उसे संबंधित राज्यों पर लागू करने का अधिकार नहीं था। लेकिन केंद्र सरकार को एक कानूनी न्यायाधिकरण गठित करने का अधिकार था जो इन राज्यों की याचिका/अपील/आवेदन सुनकर न्यायसंगत फैसला सुना सकता था। मध्य प्रदेश के विरोध की वजह से पैदा हुई रुकावट को दूर करने के लिए, मैंने प्रधानमंत्री से न्यायाधिकरण के प्रावधान के अनुसार इस मामले को न्यायाधिकरण के सुपुर्द करने का अनुरोध किया। श्रीमती गांधी ने मेरे सुझाव को स्वीकार करते हुए इस मामले को वर्ष 1968-69 में एक कानूनी न्यायाधिकरण को सौंप दिया। दुर्भाग्यवश, मध्य प्रदेश ने कई सही और गलत हथकंडों का इस्तेमाल करते हुए मामले में देरी करने की कोशिश की।

“1972 के चुनावों के दौरान श्रीमती गांधी ने गुजरात की जनता से नर्मदा विवाद को जल्द से जल्द सुलझाने का वादा किया था। गुजरात की जनता का मानना था कि श्रीमती गांधी अगस्त 1972 में ही मामले में हस्तक्षेप करके अपना निर्णय देंगी…



वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के गांवों में सरदार सरोवर परियोजना के पानी के घुसने से डूब के शिकार हुए घर और खेत। फोटो का श्रेय: राजेश खन्ना (बच्चू)।  

 

“...बांध की ऊंचाई को 500 या 530 फ़ीट रखा जा सकता था लेकिन इसके साथ-साथ मध्य प्रदेश भविष्य में जीतनी चाहे उतनी परियोजनाएं शुरू कर सकता था। मुझे यकीन है कि अगर मध्य प्रदेश ने नर्मदा का पूरा पानी इस्तेमाल किया होता और इसकी वजह से गुजरात को अगर बिल्कुल भी पानी नहीं मिला होता तो भी गुजरात को कोई शिकायत नहीं होती। लेकिन फिर भी मध्य प्रदेश को संतोष नहीं था क्योंकि अगर उसके हितों को कोई नुकसान नहीं भी पहुंचता तो भी उसे यह मंज़ूर नहीं था कि गुजरात को नर्मदा परियोजना से कोई भी लाभ मिले।[5] इससे भी महत्वपूर्ण, नर्मदा में आने वाली भयानक बाढ़ की वजह से गुजरात के बरोड़ा और भरुच जैसे कई इलाकों को भरी मात्रा में नुकसान/क्षति उठानी पड़ती थी। इसे तब ही रोका जा सकता है जब बांध की ऊंचाई 500 फीट तक की हो। जब पचास लाख एकड़ सिंचाई का इंतज़ार कर रहे हों तो डूब में जाने वाली 99,000 एकड़ जमीन वालों की आवाज़ की अनदेखी करना मुमकिन नहीं है। जिन भूमालिकों की ज़मीनें डूब में जाने वाली हैं, चाहे गुजरात में हो या मध्य प्रदेश में, उन्हें दूसरी ज़मीनें दी जा सकती हैं और वे बेहतर स्थिति में भी होंगे...                                           




गुजरात के सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों द्वारा बरोड़ा में निकाली गई रैली। फोटो का श्रेय: अज्ञात 

 

“प्रधानमंत्री ने जनता से इस मुद्दे को जल्द हल करने का वादा किया और उनके इस वादे पर विश्वास करते हुए गुजरात की जनता ने श्रीमती इंदिरा गांधी को विधानसभा में 160 सीटों में से 140 सीटें दे दी…प्रधानमंत्री द्वारा विवाद को जल्द से जल्द हल करने का वादा करने के बावजूद 1974 तक इसका कोई समाधान नहीं निकला। इसके बजाय, उन्होंने इस मामले को न्यायाधिकरण से वापस ले लिया और बिना किसी हल के इसे लंबित रखा, और फिर 1974 के अंत में इसे वापस न्यायाधिकरण के सुपुर्द कर दिया। इसी के चलते न्यायाधिकरण के फैसले में बेवजह देरी हुई। उनका कहना था कि कोई भी फैसला लेने से दोनों में से किसी एक राज्य को नाराज़ करना होगा, इसलिए कोई फैसला नहीं लिया गया है। लेकिन यह उन्हें शुरू से ही समझ जाना चाहिए था। उन्हें गुजरात की जनता से इस मामले में जल्द फैसला लेने का वादा नहीं करना चाहिए था। अगर प्रधानमंत्री ने इस विवाद को न्यायाधिकरण से वापस नहीं लिया होता तो उसने अपना फैसला वर्ष 1974 में ही सुना दिया होता...”    

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श्री मोरारजी देसाई के वर्ष 1977-79 में प्रधानमंत्री पद पर रहने के दौरान, वर्ष 1977 के बाद घटने वाली सरदार सरोवर बांध और नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण से जुड़ी घटनाओं के बारे में श्री देसाई के विचार जान पाना और भी दिलचस्प होता। लेकिन दुर्भाग्य से, उनकी आत्मकथा - “मारु जीवन वृतांत” में सिर्फ 1975 तक की घटनाओं का ही ज़िक्र किया गया है। इसलिए श्री मोरारजी देसाई के कार्यकाल के दौरान नर्मदा/सरदार सरोवर परियोजना और नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के मामले में क्या-क्या घटित हुआ यह उनकी आत्मकथा से उन्हीं के शब्दों में जानना बहुत मुश्किल है। लेकिन, जैसा कि पहले भी कहा गया है, सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में आने वाले नर्मदा घाटी के लोगों का ठोस विश्वास है कि श्री देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण की कार्यवाही ने रफ़्तार पकड़ी और न्यायाधिकरण ने गुजरात के हक़ में फैसला देते हुए महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में बड़े स्तर पर उपजाऊ ज़मीनों और घने जंगलों को बांध के पानी में डूबाने की अनुमति दी।

मुझे पूरा विश्वास है कि तमाम चुनौतियों के बावजूद बांध के विरोध में नर्मदा घाटी में चला आ रहा जन आंदोलन आगे भी इसी तरह जारी रहेगा। 


अंत







 

 



[1] यहां इस बात पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि जहां तक नर्मदा का सवाल है, राजस्थान नर्मदा का तटीय राज्य नहीं है लेकिन इसके बावजूद उसे इस विवाद में शामिल किया गया।

[2] यहां ध्यान देने वाली बात है कि खोसला आयोग ने इतनी बड़ी परियोजना के संबंध में अपनी रिपोर्ट सिर्फ एक साल में ही तैयार कर ली।

[3] नवगाम, नर्मदा नदी के किनारे बसा एक आदिवासी गांव है, जो अब गुजरात के नर्मदा जिले में पड़ता है और उस समय सरदार सरोवर बांध की मूल स्थली था। बल्कि, सरदार सरोवर परियोजना को एक वक़्त पर नवगाम बांध के नाम से भी जाना जाता था।

[4] राजस्थान में इस बांध से कोई भी गांव या ज़मीन नहीं डूबने वाली थी।

[5] श्री मोरारजी देसाई गुजरात से थे। इसलिए मुमकिन है कि उनका यह वक्तव्य एक-तरफा हो क्योंकि मध्य प्रदेश के पास 530 फ़ीट की ऊंचाई के बांध का विरोध करने के जायज़ कारण थे- यह बांध लाखों एकड़ की कृषि और वन भूमि को डुबोने वाला था और बड़ी तादाद में लोगों को बेघर करने वाला था।

Saturday 9 September 2023

मनुबेन गांधी: एक महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्ती

 


 मनु और आभा। फोटो openthemagazine.com के सौजन्य से



मनुबेन गांधी अपने समय की एक प्रमुख महिला राजनीतिक कार्यकर्ता थी जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन, बंटवारे/partition और इसके बाद, महात्मा गांधी की हत्या से जुड़ी घटनाओं को बहुत नज़दीक से देखा, लेकिन इसके बावजूद इतिहास के पन्नों में उनका ज़िक्र बहुत कम ही किया जाता है। मनुबेन ने छोटी  उम्र में जब गांधी की सहयोगी के रूप में उनकी देखभाल का काम संभाला, उस वक़्त देश एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहा था। गांधी की सहयोगी बनने से लेकर देश की आज़ादी तक, और बंटवारे से लेकर 1948 में गांधी की हत्या तक होने वाली घटनाओं के बारे में मनुबेन नियमित रूप से अपनी डायरी में लिखती थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुबेन की डायरी आत्मकथा के रूप में लिखा गया एक ऐसा लेखा-जोखा है जिसमें एक युवा महिला कार्यकर्ता और गांधी की सहयोगी के रूप में उनके अनुभवों के साथ-साथ  भारत के इतिहास के इस महत्वपूर्ण दौर से जुड़ी घटनाओं, स्थानों, राजनीती और सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश का विवरण भी दिया गया है।         

दुर्भाग्य की बात है कि हालांकि मनुबेन को वैसे तो गांधी के साथ कई तस्वीरों में देखा जा सकता है लेकिन उनके जैसी महत्वपूर्ण हस्ती के जीवन और लेखन से बहुत कम लोग परिचित हैं। इसका एक प्रमुख कारण है कि अक्सर इतिहास में महिलाओं को उनका उचित स्थान नहीं दिया जाता। इसके अलावा, उन्होंने महात्मा गांधी जैसी ऊंची हस्ती की छत्रछाया में काम किया जिसके कारण उनका अपना व्यक्तित्व हमेशा लोगों की निगाहों से छुपा रहा। यही नहीं, मनुबेन के मामले में लोगों की रुचि गांधी द्वारा ब्रह्मचर्य से जुड़े प्रयोगों पर ज़्यादा केंद्रित रही है, जिसमें युवा मनुबेन भी शामिल थी।

अंत में, मनुबेन को गांधी की देखभाल करने वाली सहयोगी के रूप में ही याद किया जाता है। हालांकि यह उनकी पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, लेकिन इसकी वजह से उनकी पहचान के बाकी पहलुओं पर पर्दा रहा है। एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि मनुबेन की डायरियां गुजराती में लिखी गई थी जिसकी वजह से उनकी पहुंच का दायरा सीमित रहा है।   

लेकिन मनुबेन की डायरी के कुछ चुनिंदा पन्नों को (मूल गुजराती में) नवजीवन द्वारा कई पुस्तकों के माध्यम से प्रकाशित किया जा चुका है। इनमें से एक पुस्तक, जिसका शीर्षक ‘बिहारनी कोमी आगमा’ में भारत की आज़ादी और बंटवारे से ठीक पहले बिहार में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के दौरान लिखी गई डायरी के कुछ पन्ने शामिल किए गए हैं।

इस किताब/डायरी के कुछ अंशों को मैं अपने द्वारा किए गए english अनुवाद और बादमें sidhhrath joshi द्वारा हिन्दी में अनुवाद के ज़रिए गुजराती न जानने वाले पाठकों के साथ यहां साझा कर रही हूँ। यहां साझा किए जा रहे अंश भारत की आज़ादी और बंटवारे के समय भड़के दंगों से प्रभावित होने वाले बिहार के इलाकों में गांधी और उनकी टीम द्वारा शुरू किए गए शांति मिशन से जुड़े हैं।    

मूल गुजराती से अनुवाद किए गए कुछ चुनिंदा अंश:

 

5-3-47, बुधवार, ट्रेन में कलकत्ता से पटना जाते हुए

“...पटना से अट्ठारह मील दूर, सुबह 5:30 बजे, हमारी ट्रेन फतवा स्टेशन पर रुक गई। स्टेशन पर बापू (गांधी) का स्वागत करने के लिए बिहार के प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा, विकास मंत्री डॉ. सैयद अहमद, वित्त मंत्री अनुग्रहनारायण सिन्हा, अब्दुल बारी साहब, कांग्रेस कार्यकर्ता, स्वयंसेवक और इसके अलावा कई और लोग मौजूद थे…पटना स्टेशन में जमा विशाल भीड़ से बचने के लिए फतवा के छोटे से स्टेशन पर ही उतर जाने का फैसला लिया गया था। बापू के साथ मृदुलाबेन [साराभाई, प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, उद्योगपति अंबालाल साराभाई की पुत्री और वैज्ञानिक विक्रम साराभाई की बहन] और मैं ट्रेन से नीचे उतर गए और निर्मलदा [निर्मल कुमार बोस], देवभाई, हारूनभाई, इत्यादि पटना स्टेशन के लिए रवाना हो गए…लेकिन यहां भी फोटोग्राफर पहुंच चुके थे! हालांकि पूरी सावधानी बरती गई थी कि किसी को भी पटना में बापू के रहने के स्थान की भनक न लगे लेकिन बापू के ही शब्दों में ‘फोटोग्राफरों और पत्रकारों को तो खुद भगवान भी नहीं रोक सकता!’ यह बात पूरी तरह से सच साबित हुई और हमें चारों ओर से घेर लिया गया। हम सुबह साढ़े छह बजे कृष्णबाबूजी की कार में डॉ. सईद मुहम्मद के घर पहुंचे, जहां फिर से कुछ लोगों और स्वयंसेवकों का एक जमावड़ा लगा हुआ था। कुछ जलपान और सभी से मिलने के बाद, राजेन्द्रबाबू और मंत्रिमंडल के सदस्य आए। उनके साथ मौजूदा स्थिति और आगे की कार्रवाई के बारे में चर्चा की गई…बापूजी ने मुझसे बेगम साहिबा और उनकी बेटियों से मिलने और दोस्ती करने के लिए कहा…क्योंकि डॉक्टर साहब के बेटे, हबीबभाई सेवाग्राम आश्रम में पहले रह चुके थे, इसलिए मैं उन्हें भलीभांति जानती थी और वे मुझे अपने साथ अपनी माँ और बहनों से मिलाने ले गए…बापूजी इस तरह से बहुत व्यावहारिक हैं और वे चाहते हैं कि हम अपने मेज़बानों के साथ अच्छी तरह घुलमिल जाएं चाहे वे हमारे लिए नए क्यों न हों…इस परिवार में पर्दे की प्रथा मानी जाती है इसलिए वे बापूजी से तभी मिल सकते हैं जब वे अकेले हों…मैं बेगम साहिबा से मिली और उनके साथ कुछ नाश्ता किया और फिर अपने काम में लग गई।

“…जब बापूजी प्रभावतीबेन [प्रभावती देवी, स्वतंत्रता सेनानी, जयप्रकाश नारायण की पत्नी और स्वतंत्रता सेनानी ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री] के साथ यात्रा कर रहे थे तो मृदुलाबेन से बहुत मदद मिली…प्रभावतीबेन ने नोआखली  [पड़ोसी सूबे बंगाल में दंगों से प्रभावित होने वाला इलाका] में किए जा रहे कल्याणकारी कार्य के बारे में बताया...बापूजी ने बिहार में एक आयोग के गठन पर बहुत ज़ोर दिया [दंगों में हुए जान-माल के नुकसान की जांच करने के लिए]…

“यहां पानी की बहुत किल्लत है और सफर के दौरान मैले हुए सभी कपड़ों को बाहर धोना पड़ा...लौटने के बाद बापूजी को मिट्टी का लेप देने के बाद [गांधी नेचुरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा) का उपयोग करते थे और मनु द्वारा तैयार किया गया मिट्टी का लेप उनकी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा था], मैं अपने रात के भोजन के लिए जा रही थी कि मैंने कुछ पत्रकारों को इधर-उधर घूमते हुए देखा। वे नोखाली में खुश थे क्योंकि वहां वे तम्बुओं में रह सकते थे। लेकिन यह एक निजी घर था, तो वे कहां रुकते?... ए.पी.आई के कुछ पत्रकारों ने मुझसे उनके लिए व्यवस्था करने के लिए कहा। मैंने बापूजी से उनकी राय पूछी, जिस पर उन्होंने कहा:

‘प्रबंधक को सूचना दे दो कि मुझे प्रेस या फोटोग्राफरों की कोई ज़रूरत नहीं है। अगर वे मुझसे दूर रहते हैं तो मैं समझूंगा कि भगवान ने मुझ पर अपना आशीर्वाद बरसाया है। उन्हें बता दो कि बापूजी की वजह से डॉ. साहब पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डाला जा सकता है और उन्हें अपनी व्यवस्था खुद करनी होगी...’

“…मृदुलाबेन ने बापूजी के राजनीतिक मुद्दों से जुड़े पिचत्तहर प्रतिशत काम को खुद के कंधों पर डाल लिया है। बापूजी के स्नान, विश्राम और भोजन के समय के बारे में मेरा साथ समन्वय बनाकर वो बापूजी की सभी बैठकों का आयोजन करेंगी। इससे चीज़ें काफी आसान हो जाएंगी और बापूजी को काफी राहत मिलेगी…       

“...मिट्टी के लेप को साढ़े चार बजे हटाया; बापू ने फिर कुछ अंगूर व आधा सेब खाया और आठ सेर दूध पिया। यहां गर्मी बहुत ज़्यादा है और बापूजी की भूख पहले ही आधी हो चुकी है…

“...राजेन्द्रबाबू आए और दिल्ली की स्थिति और यहां बिहार की स्थिति पर चर्चा की...शाम को सात बजे, बांकीपुर मैदान पर एक प्रार्थना सभा आयोजित की गई। लोगों की भीड़ की वजह से हम कार में रवाना हुए। लाखों की संख्या में लोगों की भीड़ जमा हुई थी और मैदान पहुंचते-पहुंचते हम थक कर चूर हो चुके थे। एक तरफ, ‘गांधीजी की जय’ और ‘जय हिंद’ के नारे कानों में गूंज रहे थे। दूसरी तरफ, लोग बापूजी के पांव छूने को बेताब थे, यह सोचकर कि इससे वे पवित्र हो जाएंगे, वे बस उन्हें छूना चाहते थे। तीसरी तरफ, बेकाबू होती भीड़ बापूजी की एक झलक पाने के लिए आगे आने की कोशिश में धक्का-मुक्की कर रही थी। नोआखली के शांत जीवन के बाद इस तरह के अनुभवों के लिए खुद को तैयार करना बहुत मुश्किल है। यह स्पष्ट है कि बिहार के लोग बापूजी के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं और यह सभी उसी की वजह से हो रहा है। हम बहुत कठिनाई के बाद प्रार्थना मंच तक पहुंचे। पहले बापूजी ने मुझे राम धुन [राम - एक हिन्दू भगवान, धुन - भजन के रूप में गाई जाने वाली पंक्तियां जिन्हें बाकी लोग दोहराते हुए साथ में गाते हैं] से शुरुआत करने के लिए कहा। इसके बाद प्रार्थना हुई जिसके दौरान पूरी तरह से ख़ामोशी छा गई, जिसकी किसी ने अपेक्षा नहीं की थी। बापूजी का आज का भाषण बहुत मार्मिक था, जो उनके ह्रदय की गहराई से निकला था। उनकी आवाज़ में दिल चीर देने वाला दर्द और अत्यंत गंभीरता थी। प्रार्थना के महत्व पर ज़ोर देते हुए बापूजी ने कहा:

‘...पूरी निष्ठा से की गई प्रार्थना असरदार होती है…हिन्दू मंदिर में प्रार्थना करते हैं, ईसाई गिरजाघर में और मुसलमान मस्जिद में। इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन सभी के साथ में मिलकर प्रार्थना करने से ज़्यादा बेहतर और क्या हो सकता है? सभी [धर्मों] का मर्म एक ही है, बस नाम अलग-अलग हैं…’

“...बिहार आने के अपने मकसद को स्पष्ट करते हुए, वे बोले:  

‘बिहार ने हिंदुस्तान के नाम को मिट्टी में मिला दिया है। नोखाली में किए गए बर्बर कृत्यों की नक़ल करने से बचना बहुत ज़रूरी है… मौत और बर्बरता का मानवता से सामना करना की नोआखली का सही बदला होगा। अगर आप वाकई में भारत की आज़ादी चाहते हैं तो आपको बर्बरता की नक़ल करना छोड़ना होगा। जो इन बर्बर कृत्यों का सहारा ले रहे हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि वे भारत की आज़ादी में देरी पैदा करने का काम कर रहे हैं। ज़ुबान पर ‘जय हिंद’ का नारा लेकिन काम हिंद को ख़त्म करने का! इससे भारत की जय कभी नहीं होगी... मैं कई सालों बाद बिहार आया हूँ। अगर आपसे सच कहूँ तो मैं बिहार की वजह से ही लोकप्रिय हुआ क्योंकि यहां आने से पहले में बीस वर्ष अफ्रीका में था। मेरे चंपारण में आने के बाद पूरा हिंदुस्तान जाग उठा…और इसी लिए ही मैं यहां आया हूँ। यहां मुसलमान अल्प संख्या में हैं। उनके साथ जो किया जा रहा है, माना जाता है कि ऐसा उनके साथ इतिहास में पहले कभी भी नहीं हुआ…क्योंकि मैं आज ही यहां आया हूँ, मेरे पास अभी तक इसका पूरा ब्यौरा नहीं है। मुझे शायद कल तक पूरा विवरण मिल जाएगा...’ 

“…बापूजी ने पैदल चल कर वापस जाने की इच्छा ज़ाहिर की क्योंकि कार में उनका दम घुट रहा था। मैं बापूजी की एक तरफ थी और प्रभावतीबेन दूसरी तरफ। लेकिन बापूजी के पैर छूने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी और सुरक्षा घेरा टूट गया। मैं नीचे गिर पड़ी और ज़मीन पर दब गई। पुलिस के जूते इतनी बुरी तरह से चुभे कि मेरी खाल छिल गई। मेरी चप्पल कहीं गुम हो गई। बेचारी प्रभावतीबेन की हालत मुझसे भी बदतर थी। बांकीपुर मैदान से घर का रास्ता सिर्फ दो मिनट का था लेकिन भीड़ के बीच से निकल कर आने में हमें पूरा आधा घंटा लगा। बेचारे पुलिस वाले पूरी तरह से पसीने में तरबतर हो गए थे।      


लौटने के बाद, मैंने बापूजी के पांव धोए…बापूजी ने थोड़ा फटा हुआ दूध पिया...करीब साढ़े दस बजे बापूजी सोने से पहले थोड़ा टहलने लगे। बेगम साहिबा, उनकी दोनों बेटियां और डॉक्टर साहब मिलने आए। बापूजी ग्यारह बजे सो गए। मैंने उनके पांव दबाए, उनके सर पर तेल की मालिश की, और फिर उनकी मच्छरदानी टांगने के बाद में, अपने सोने की जगह पर आ गई जो घर से थोड़ी सी ही दूरी पर है। मैंने बापूजी के कागज़ जमाए, उनकी बैठक को व्यवस्थित किया और फिर अपनी डायरी लिखी। पटना में आज के इस पहले दिन में काफी काम हुआ…”

 

6-3-1947, गुरुवार, पटना

“...दोपहर में दो बजे से बैठकें शुरू हो गई। [मुस्लिम] लीग भाइयों, जफ़र इमाम, मज़र इमाम, यूनस साहब, और छपरा के हिन्दुओं के साथ हुई बैठक चार बजे तक चली। मुझे लगा कि मुस्लिम लीग भाई अपनी बात को थोड़ा बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे थे। लेकिन बापूजी ने भी इसमें कहा कि वे अपनी राय गांवों के दौरे के बाद ही बताएंगे...शाम की प्रार्थना के दौरान, बापूजी ने कहा:     


‘...एक वक़्त था जब हिंदू और मुसलमान, त्योंहार के समय, सुख और दुःख के समय एक दूसरे की मदद करते थे और एक दूसरे के प्रति सहानुभूति रखते थे। अगर आज ऐसी भावना न भी बची हो तो भी एक दूसरे के प्रति दुश्मनी की भावना नहीं होनी चाहिए। जो मैंने नोखाली और त्रिपुरा में हिन्दुओं से सुना था वही अब मैं यहां के मुसलमानों से सुन रहा हूँ और मैं बहुत शर्मिंदा हूँ…क्या मुसलमान बिहार में नहीं रह सकते हैं?...मुझे बताया गया है कि आज भी मुसलमान औरतों को हिन्दू घरों में बंधी बना कर रखा गया है। अगर यह सच है तो मैं इन महिलाओं को उनके घर वापस भेजे जाने की विनती करता हूँ…’       


“...दैनिक दिनचर्या के अनुसार, मैंने प्रार्थना सभा से लौटने के बाद बापू के पैर धोए। इतनी देर में कृष्णबाबू और अनुग्रहबाबू भी आ गए। उनसे मिलने के बाद, प्रार्थना के भाषण में सुधार किया गया। साढ़े आठ बजे, राजेन्द्रबाबू जाने की इजाजज़त लेने आए क्योंकि उन्हें दिल्ली रवाना होना था। आज से बापूजी ने मुसलमान के लिए राहत कार्य के लिए चंदा इकट्ठा करना शुरू किया और जब वे वाल्टन साहब से बात कर रहे थे तो मैंने अब तक जमा हुए चंदे का हिसाब लगाया जो कुल 396-4-8 रूपए था। हम साढ़े दस बजे शैलेनभाई के साथ बात करते-करते कुछ देर टहलते रहे। बापूजी काफी देरी से, रात साढ़े ग्यारह बजे सोने गए। मैंने बापूजी की तेल की मालिश की, उनके पांव दबाए और फिर तुरंत सोने चली गई।”          

 

7-3-1947 शुक्रवार, पटना

“...मृदुलाबेन यहां बहुत मेहनत से काम कर रही हैं और उनका काम बहुत व्यवस्थित है। वे बहुत ज़रूरी होने पर ही बापूजी से सलाह लेने आती हैं। इसके अलावा, बाकी का पूरा काम वे खुद से कर लेती हैं। वे अपनी छोटी बहन की तरह मेरा ख्याल रखती हैं...प्रार्थना से लौटने के बाद, शैलेनभाई ने हमें खबर दी की अमृतसर में आग लगा दी गई है और अब पंजाब में भी दंगे भड़कने लगे हैं। हमें क्रिप्स और खान साहब के बारे में भी सूचना मिली। खान साहब, फ्रंटियर गांधी के यहां आने की संभावना है।

“... बेगम साहिबा और उनका परिवार हमसे मिलने आया। गंगा के किनारे स्थित यह जगह रहने और टहलने के लिए बहुत अच्छी है…रात दस बजे बापू की सोने में मदद करने के बाद; मैंने राहत कार्य के लिए इकट्ठा हुए चंदे का हिसाब लगाया। मैंने इसे तीन बार गिना क्योंकि अगर एक पैसे की भी गलती होती तो अच्छा नहीं होता। मेरे बाद, इसे हारुनभाई ने गिना और इसमें चार आने की गलती निकली। तब तक साढ़े बारह बज चुकी थी। इसके बाद मैंने बापूजी की सुबह की बैठकों के लिए बैठने की व्यवस्था की, पत्रों की प्रति बनाई, बापूजी की दो दिन की डायरी की पति बनाई, अपनी खुद की डायरी लिखी और अब घड़ी में एक बजने पर में सोने जा रही हूँ।”     

             

11-3-1947, मंगलवार, पटना

“... बापूजी द्वारा प्रार्थना सभाओं में दिए जाने वाले प्रवचनों को अंदरूनी गांवों तक पहुंचाने के उद्देश्य से इन्हें ‘बिहार समाचार’ के शीर्षक वाले पर्चों के रूप में प्रकाशित किया जाएगा, और बिहार सरकार द्वारा इन पर्चों को हवाई मार्ग से बिहार के गांवों में नीचे गिराया जाएगा। यह निर्णय श्री बाबू ने लिया है और इसके लिए कल से काम शुरू किया जाएगा। हमारा दौरा भी कल से शुरू होने वाला है। शुरुआत में हम आस-पास के गांवों का दौरा करेंगे और रोज़ रात को वापस घर लौट आएँगे। बाद में, हम दूर-दराज़ के गांवों का दौरा करेंगे। आज की शाम की प्रार्थना सभा बांकीपुर मैदान में तय किए गए समय पर हुई, जिसमें बापूजी ने कहा:


‘आज की सभा यहाँ की मेरी आखिरी प्रार्थना सभा होगी क्योंकि कल से मैं अंदरूनी गांवों का दौरा शुरू करूंगा…लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ की आप मुसलमान राहत कार्य कोष में चंदा देना जारी रखेंगे...कल चंदे के तौर पर कुल दो हज़ार रूपए इकट्ठे हुए। महिलाओं ने अपने आभूषण दान में दिए। मैं जानता हूँ कि महिलाओं को अपने आभूषणों से कितना लगाव होता है, लेकिन इसके बावजूद वे अपने आभूषणों को दान में देकर इतनी मदद कर रही हैं…’   


“…आज की प्रार्थना सभा में बापूजी का भाषण एक घंटे चला…जिसके बाद हमने चंदा इकट्ठा करना शुरू किया...बापूजी ने सिर्फ दूध पिया और एक सेब खाया और अपने भाषण को जांचा और जब वो मंत्रियों के साथ चर्चा कर रहे थे तब मैंने खान साहब [अब्दुल गफ्फार खान] को खाना परोसा...जब साढ़े नौ बजे बापूजी सोने चले गए तो मैंने उनके पैरों की मालिश की, तेल मला और फिर इकट्ठा किए गए चंदे का हिसाब लगाने बैठ गई…आज जो चंदा जमा हुआ उसे देखकर लगता है कि ज़्यादातर चंदा गरीब लोगों ने दिया था, क्योंकि इसमें पचास रूपए का सिर्फ एक नोट था, बाकी सिर्फ पाई, एक आना या दो आने [ऐसे सिक्के या नॉट जो अब चलन में नहीं हैं] में था…दान दिए गए आभूषणों में चांदी की पायजेब और कड़ियां, सोने की नाक की नथनी, मीनाकारी वाली कान की बालियों का एक जोड़ा, अंगूठियां थी…मैं अपना पूरा काम खत्म करने के बाद घड़ी में एक बजने पर अब सोने जा रही हूँ…”        

 

12-3-1947, बुधवार, पटना

“...बापूजी आराम कर रहे थे लेकिन मैंने उनके पांवों की मालिश की और उसके बाद खान साहब को दोपहर का खाना परोसा और उनके पास बैठकर अपनी डायरी लिखने लगी। जैसे ही खान साहब ने अपना खाना ख़त्म किया बापूजी उठ गए। मैंने उन्हें गर्म पानी दिया, उनका चरखा तैयार किया और बर्तन साफ करने लगी। मैंने आधा घंटा आराम किया, फिर बापूजी को मिट्टी का लेप दिया, और उसके बाद मैंने गुड़-पपड़ी [एक गुजराती व्यंजन जिसे सफर के दौरान साथ में ले जाय जाता है क्योंकि यह जल्दी ख़राब नहीं होता है] बनाई…हम साढ़े चार बजे रवाना हुए। मंत्रियों में से अनुग्रहबाबू हमारे साथ थे। मृदुलाबेन, खान साहब, बापूजी और मैं पीछे की सीट पर बैठे थे…मृदुलाबेन बोली:

‘मुझे 1930 का दांडी सत्याग्रह [नमक सत्याग्रह] याद आ रहा है…’     

“...खान साहब विनम्रता के प्रतीक हैं और उनकी भाषा इतनी मीठी है कि उनकी बात बिना रुके सुनते रहने का मन करता है। वे इतने सहज हैं। वाकई में यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे इन दो महात्माओं के बीच रहने का मौका मिला! रास्ते में मुहम्मद मुस्तफाखान का घर पड़ा। इसे पूरी तरह से तोड़ दिया गया था। दरवाज़े और खिड़कियां चुरा ली गई थी। हमने एक जलाई गई मस्जिद को देखा। प्रार्थना सभा के लिए विशाल भीड़ जमा हुई थी। कई सारी मुसलमान महिलाएं भी आई थी…प्रार्थना के बाद बापू ने दर्द भरी आवाज़ में कहा:

‘एक फलते-फूलते परिवार और उनके मकान को पूरी तरह से उजाड़ दिया गया। आप सभी जानते हैं कि अँगरेज़ अब [भारत] छोड़ कर जाने वाले हैं। समय के इस पड़ाव पर, हमें अपने कर्तव्यों के बारे में विचार करने की ज़रुरत है…क्या हम हमेशा गुलाम ही बनकर रहना चाहते हैं? क्या हम हिंदुस्तान, पाकिस्तान, ब्राह्मणीस्तान, अछूतीस्तान बनाकर अपनी मातृभूमि के टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं?... यहाँ आते समय रास्ते में जो खंडहर मैंने देखे उनसे मेरा दिल घावों से छल्ली हो गया। ज़रा सोचिए कि हम आज़ादी की दहलीज़ पर खड़े होकर यह क्या कर रहे हैं…’     


“...बापूजी के भाषण के बाद, मैंने चंदा इकट्ठा करना शुरू किया। महिलाएं मुझे अपने पास बुलाकर चंदा दे रही थी। कई गरीब महिलाएं अपने चांदी के आभूषण दान में दे रही थी। पूरा माहौल अस्त-व्यस्त था लेकिन काफी बड़ी मात्रा में चंदा इकट्ठा हुआ…बापूजी बहुत थक गए हैं और सड़क काफी उबड़-खाबड़ है। खान साहब भी बहुत थक गए हैं…” 

 

13-3-1947, गुरुवार, पटना

“...परसा गांव में हमने जले हुए घर देखे। पक्के मकान खंडहर जैसे दिख रहे थे…”

 

14-3-1947, शुक्रवार, पटना

“खुसरूपुर, जहां हमारी बैठक होने वाली थी, वहां जाते समय हम जटली और शफीपुर गांवों में रुके। शफीपुर में हमने दो जले हुए मकानों को और एक कुएं में हमने महिलाओं के खून से सने कपड़ों को पानी में तैरते हुए देखा। यह नज़ारा देख कर बहुत दुःख हुआ…”  

 

26 -3-1947, जहानाबाद

“...हमें सरदार साहब [सरदार वल्लभभाई पटेल] और वायसराय [लार्ड माउंटबेटन] की ओर से एक तार (टेलीग्राम) मिला। हमें दिल्ली जाना पड़ सकता है… खान साहब शायद पेशावर जाएंगे और मैं और बापूजी दिल्ली जाएंगे। मृदुलाबेन, देवेनभाई और हारूनभाई बापूजी के प्रतिनिधियों के रूप में यहां काम जारी रखेंगे। मृदुलाबेन मुख्य समन्वयक होंगी...”  

 

 

 

1-4-1947, भंगी कॉलोनी, नई दिल्ली

“...रात को मृदुलाबेन ने फ़ोन करके बताया कि रांची में दंगे भड़क गए हैं। बापू ने उन्हें रांची जाने के लिए कहा। मृदुलाबेन के बारे में बात करते हुए बापूजी ने कहा,


‘यह लड़की [मृदुलाबेन] इतनी निडर है कि वो अपनी जान पर खेल कर भी वहां [दंगों से प्रभावित इलाके] जाएगी और इसलिए वहां जाने से मना करने का कोई फायदा नहीं था। अगर इतनी निडर लड़की दंगों में मारी भी जाती है तो मुझे इसका कोई अफसोस नहीं होगा। मुझे लगता है कि इसके साथ, वहां जल्द ही शांति कायम की जा सकेगी...’  


“...बापू वायसराय से मिलने के लिए नौ बजे रवाना हो गए…भाई साहब और मैं वहां दस बजे पहुंचे। कार खड़ी करने के बाद जब अर्दली ने मंत्रीजी को हमारे आने की सूचना दी तो हमें बैठक में ले जाया गया। एक से एक आलीशान कमरों से गुज़रने के बाद हम मैदान तक पहुंचे। माउंटबेटन साहब और बापूजी हरे रंग की बेंत की कुर्सियों पर बगीचे के बीचों बीच बैठे थे। आसमान बादलों से ढका हुआ था और ठंडी हवा चल रही थी। मैदान पर फैली हरी घास ऐसी लग रही थी जैसे किसी ने हरे रंग की खूबसूरत सी कालीन बिछा दी हो। बगीचा सुंदर-सुंदर फूलों से भरा था और एक पेड़ पर एक कोयल चहचहा रही थी। इस प्रकृति के बीच यहां कई सारी चिड़ियाएं थी और उनके चहचहाने से ऐसा लग रहा था जैसे भारत के भविष्य के बारे में वे भी अपनी राय दे रही हों! बागवान ने अपने हुनर का इस्तेमाल करते हुए मेहंदी की झाड़ियों को अलग-अलग चिड़ियों के आकर में तराशा था। पानी के झरने चालू थे, चारों तरफ…अंदर के खूबसूरत मेज़-कुर्सी के बजाय, दोनों [गांधी और माउंटबेटन] प्रकृति की गोद में बैठे थे...बहुत ही खूबसूरत नज़ारा था। मुझे लगा कि आज अपने साथ कैमरा लेकर आना चाहिए था। जैसे ही हम पहुंचे, माउंटबेटन साहब खड़े हुए और हम से हाथ मिलाया। भाई साहब का परिचय देने के बाद, बापूजी ने मेरा परिचय कराया। माउंटबेटन साहब ने मुझसे कहा:


‘नोआखली में और गांधीजी के साथ आपकी तस्वीरें देखने के बाद, मेरी बेटी मुझसे कह रही थी कि आप बहुत भाग्यशाली हैं! आपसे मिलकर मुझे बहुत ख़ुशी है। मैं अपनी बेटी को आपकी प्रार्थनाओं को सुनने के लिए भेजना चाहता हूँ…’   


“...बापूजी ने वायसराय साहब से पूछा कि जब तक वे अपना भोजन कर रहे हैं तब तक क्या हम बाग़ में टहल सकते हैं…वायसराय साहब ने मेरी तरफ देखा और कहा: 


‘बिलकुल, मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? यह सब अब आपका ही तो है। मैं तो बस अब एक ट्रस्टी (निरीक्षक) मात्र हूँ। हम तो यह सब आपको ही सौंपने यहां आए हैं…’ 


“...प्रार्थना सभा में मैंने जैसे ही उर्दू में कुरान शरीफ की एक आयत “अ’उधू बिल्लाहि” से प्रार्थना शुरू की, हिन्दू महासभा के कुछ लड़कों ने यह कहते हुए शोर मचाना शुरू कर दिया कि क्योंकि प्रांगण में एक हिन्दू मंदिर है इसलिए वे यह प्रार्थना नहीं गाने देंगे! कई लोगों ने इन लड़कों को दूर करने की कोशिश की। बापूजी को यह अच्छा नहीं लगा…अंत में इतना हंगामा खड़ा हो गया कि उस लड़के को ज़बरदस्ती वहां से ले जाना पड़ा... बापू आज की इस घटना के बारे में गहराई से सोच-विचार कर रहे हैं और उन्होंने मुझसे कहा:  


‘यहां मेरी अहिंसा की परीक्षा ली जाएगी। लेकिन प्रार्थना सभा का संचालन तुम कर रही हो। तुम जितने शुद्ध मन से प्रार्थना करोगी, आम जनता पर उसका उतना ही असर होगा और वे कुछ नया सीखेंगे। तुम्हारी ज़िम्मेदारी कुछ कम नहीं है। अगर तुम अपने दिल की गहराई से प्रार्थना करोगी तो भगवान राम ज़रूर लोगों को सही राह पर चलने की प्रेरणा देंगे। मुझे इस पर पूरा विश्वास है…’         

 

13-5-1947, खादी प्रतिष्ठान, (कलकत्ता-शोड़पुर)

“...मेरी चाची ने बापूजी को बताया की उन्हें मुझसे ईर्ष्या होती है! बापूजी ने उनसे कहा:

‘यह सच है। मेरा पास कई लड़कियां आई और मैंने कई लड़कियों को बड़ा किया है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसी भी लड़की ने इतनी कम उम्र में मुझसे उतना सीखा हो जितना मनु ने। उसने मेरे साथ नोआखली आने की हिम्मत दिखाई और मुझे लगा था कि वो नोखाली में मेरे बलि संस्कार में बच नहीं पाएगी। मैंने उसकी कड़ी से कड़ी परीक्षा ली है…वो तेरह या चौदह साल की उम्र में आगा खान पैलेस में बा की सेवा [जब कस्तूरबा गांधी को पुणे के आगा खान पैलेस में बंद किया गया तो उनकी तबियत बहुत ख़राब थी और 1944 में कैद में ही उनकी मृत्यु हो गई] करने के लिए आई थी…मनु को सीखाने और तैयार करने की मेरी तभी से इच्छा थी…मुझे नहीं पता कि मैं इस ज्वालामुखी से कब निकल पाउँगा और मैंने मनु को शुरू से ही कह रखा है कि वो अपने परिवार से मेरी मृत्यु के बाद ही मिल पाएगी। तब तक, वो अपने पिता या बहन को बुलाकर यहां मिल नहीं पाएगी...मैं यहां यह भी स्वीकार करना चाहता हूँ कि शायद में उससे उसकी क्षमता से ज़्यादा काम करावा रहा हूँ और वो बार-बार बीमार पड़ रही है। आज भी उसे 103 डिग्री बुखार है लेकिन इसके बावजूद, उसने मेरे सारा काम पूरा किया…’            

 

~ सम्पति~