Wednesday, 13 September 2023

नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का इतिहास

 

नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का इतिहास

2016-17 में (जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी) नर्मदा मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों को नकद मुआवज़ा दिया जाना चाहिए, और इसके अलावा (जैसाकि दी टेलीग्राफ अखबार में रिपोर्ट किया गया) - 

“न्यायाधीशों ने 4,897 परिवारों को जुलाई 31, 2017 तक अपनी ज़मीनें खाली करने के लिए कहा और ऐसा न किए जाने पर अधिकारी उन्हें ‘जबरन बेदखल’ करने के लिए स्वतंत्र होंगे।”

यह बुनियादी रूप से नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा बांध के निर्माण के साथ जोड़ी गई पुनर्वास और पुनर्स्थापन की शर्तों का उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय नर्मदा घाटी के लोगों के मौलिक अधिकारों के साथ-साथ उनके न्याय और गरिमा के अधिकारों को भी उन से छीन लेता है।  

क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के फैसले का सीधे तौर पर उल्लंघन करता है, इसलिए यहां बांध की ऊंचाई को लेकर गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश राज्यों की सरकारों के बीच उठे इस अंतरराज्यीय विवाद के इतिहास पर एक नज़र डालना महत्वपूर्ण है। यहां अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 के अंतर्गत वर्ष 1969 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के गठन; दिसंबर 1979 में सुनाए गए न्यायाधिकरण के फैसले; गुजरात के पक्ष में बांध की ऊंचाई को बढ़ाने के न्यायाधिकरण के इस फैसले के खिलाफ मध्य प्रदेश में निमाड़ बचाओ आंदोलन के नाम से शुरू हुए शक्तिशाली आंदोलन और इसके बाद, नर्मदा बचाओ आंदोलन के इतिहास को जानना बहुत ज़रूरी है। सरदार सरोवर परियोजना के इतिहास में विभिन्न राजनेताओं की भूमिकाओं को समझना भी ज़रूरी है, विशेष रूप से पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई की। बांध परियोजना, इससे जुड़े अंतरराज्यीय विवाद और बांध के खिलाफ उभरने वाले जन आंदोलन के इतिहास को इससे जुड़े विविध लोगों की ज़ुबानी सुनने के लिए देखें: https://oralhistorynarmada.in/early-history-of-the-movement/

यहां इस लंबे इतिहास की कुछ झलकियां पेश की गई हैं। 

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साल 1961 में प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे एक बांध की नींव रखी थी, जो आज के बांध से कहीं छोटा था। इस बांध को तब नवगाम बांध बुलाया जाता था, (और अब सरदार सरोवर परियोजना) और उस समय इस बांध की ऊंचाई सिर्फ 161 फ़ीट थी, देखें: http://www.sardarsarovardam.org/history-of-nwdt.aspx. लेकिन, गुजरात राज्य और उसके नेताओं को नर्मदा पर इससे कहीं ज़्यादा ऊंचा बांध चाहिए था। इसके चलते तटीय राज्यों के बीच में एक विवाद खड़ा हो गया क्योंकि नर्मदा पर बनने वाले इस बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने पर पड़ोसी राज्यों, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में सैंकड़ों एकड़ उपजाऊ कृषि भूमि और वन भूमि बांध के पानी में डूबने वाली थी। क्योंकि कम ऊंचाई का बांध गुजरात को मंज़ूर नहीं था इसलिए वर्ष 1969 में बांध की ऊंचाई और पानी के बंटवारे से जुड़े इस विवाद को एक न्यायाधिकरण को सौंपा गया। उस वक़्त प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थी। न्यायाधिकरण ने अपना फैसला 10 साल बाद, वर्ष 1979 में सुनाया, जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी। फैसला गुजरात के पक्ष में गया और बांध की ऊंचाई को 455 फ़ीट तक बढ़ा दिया गया। नर्मदा घाटी के लोगों के बीच आम मान्यता थी कि गुजरात के श्री मोरारजी देसाई के भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही न्यायाधिकरण के काम में तेज़ी आई और जनता पार्टी के सत्ता में होने के समय ही न्यायाधिकरण ने गुजरात के पक्ष में अपना फैसला सुनाया। बांध का निर्माण कार्य वर्ष 2017 में ख़त्म हुआ, जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में थी और गुजरात के ही श्री नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री थे।    



सरदार सरोवर बांध (फोटो विकिपीडिया के सौजन्य से)

इस शुरुआती इतिहास के कुछ पहलुओं को श्री मोरारजी देसाई ने गुजराती में लिखी गई अपनी आत्मकथा में बयां किया है और उसके कुछ पन्नों का  पहेले अंग्रेजी में अनुवाद नंदिनी ओज़ा द्वारा और अंग्रेजी से हिन्दी में  अनुवाद सिद्धार्थ जोशी द्वारा करके यहां साझा किया जा रहा है: 

मोरारजी देसाई लिखते हैं:

“वर्ष 1947-48 में, मुंबई राज्य [जिसमें उस समय वर्तमान गुजरात और महाराष्ट्र राज्य शामिल थे] में कई सिंचाई परियोजनाओं को लागू करने का निर्णय लिया गया। तापी और नर्मदा परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई लेकिन नर्मदा परियोजना से जुड़े आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण नर्मदा परियोजना का खाका उस समय तुरंत तैयार नहीं किया जा सका। सरदार वल्लभभाई पटेल और हम में से कुछ लोगों ने पहले तापी परियोजना का खाका तैयार करके उसे लागू करने और फिर उसके बाद नर्मदा परियोजना को शुरू करने का निर्णय लिया। जब इस प्रोजेक्ट की योजना बनाई जा रही थी तब मैं मुंबई राज्य का मुख्यमंत्री था। मैंने तब इस परियोजना को अंतिम रूप देने, इसके संचालन के लिए और इसके लिए ज़रूरी पूंजी इकट्ठी करने के लिए कुछ उद्योगपतियों को एक ‘निगम’ की स्थापना करने के लिए कहा था। मैंने उनसे वादा किया था कि जब तक उनके द्वारा किए गए निवेश की भरपाई की ज़िम्मेदारी सरकार के कंधों पर नहीं आती, तब तक इस परियोजना का प्रबंधन उन्हीं के हाथों में रहेगा। उस समय नर्मदा परियोजना सबसे कम लागत वाली थी और फिरभी सामान्य ब्याज का भुगतान कर पाना भी मुमकिन नहीं था। क्योंकि इस प्रस्ताव के प्रति ज़्यादा रूचि नहीं दिखाई गई, इसलिए इस बातचीत को यहीं छोड़ दिया गया। जब मुंबई सरकार ने पहली बार इस प्रोजेक्ट की योजना बनाई तो आंकड़ों की कमी की वजह से, बांध की ऊंचाई 300 फ़ीट तय की गई थी। गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों के अलग होने के बाद, वर्ष 1960 में श्री जवाहरलाल नेहरू ने इस बांध की नींव रखी।

“लेकिन, बजट की कमी की वजह से, बांध के निर्माण का कार्य शुरू नहीं किया जा सका। मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान राज्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए नर्मदा परियोजना का गहराई से अध्ययन करने के लिए सरकार ने वर्ष 1963-64 में खोसला आयोग का गठन किया। इस आयोग के अध्यक्ष एक काबिल अभियंता (इंजीनियर) और प्रशासक थे। उनका या खोसला आयोग के किसी और सदस्य का गुजरात से कोई लेना-देना नहीं था। आयोग ने सभी तरह की जानकारी इकट्ठी की, चारों संबंधित राज्यों के हितों को ध्यान में रखा[1], और किसी भी संबंधित राज्य के अधिकारों को प्रभावित किए बिना, नर्मदा के पानी के सबसे बेहतर इस्तेमाल का रास्ता दिखाने की कोशिश की। वर्ष 1965-66 में अपनी अंतिम रिपोर्ट[2] देते हुए इस आयोग ने नवगाम[3] में बनाए जा रहे बांध की ऊंचाई को कम से कम 500 से 530 फ़ीट तक बढ़ाए जाने की सिफारिश की। गुजरात ने इसे अपनी स्वीकृति दी और राजस्थान[4] ने भी इसे मान लिया। मध्य प्रदेश ने इस सिफारिश का विरोध करते हुए इसे स्वीकार करने से मना कर दिया। बांध की इस ऊंचाई की वजह से मध्य प्रदेश में करीब 99,000 एकड़ कृषि भूमि डूब में जाने वाली थी। इसके अलावा, जहां गुजरात को सिर्फ 150 मील तक के नर्मदा नदी के पानी को खोना पड़ता वहीं मध्य प्रदेश को करीब 700 मील के नर्मदा के पानी से हाथ धोना पड़ता। इन्ही कारणों की वजह से मध्य प्रदेश ने [खोसला आयोग की सिफारिशों का] विरोध किया। महाराष्ट्र, जिसमें नर्मदा सिर्फ 30 मील की ही दूरी तय करती है, उसकी सरकार ने मध्य प्रदेश के साथ हाथ मिलाकर बांध से पैदा होने वाली बिजली में ज़्यादा बड़े हिस्से की मांग की। मध्य प्रदेश के तीखे विरोध के कारण इस परियोजना को गुजरात में भी लागू करना मुमकिन नहीं था।

“चौथे आम चुनावों के बाद मैं भी केंद्र सरकार की कैबिनेट (मंत्रिमंडल) का सदस्य बन गया। मैं मार्च 1967 से लेकर 1967 तक सरकार में नहीं था। संविधान के प्रावधानों के अनुसार, केंद्र सरकार को अंतरराज्यीय जल विवादों के संबंध में फैसला लेने और उसे संबंधित राज्यों पर लागू करने का अधिकार नहीं था। लेकिन केंद्र सरकार को एक कानूनी न्यायाधिकरण गठित करने का अधिकार था जो इन राज्यों की याचिका/अपील/आवेदन सुनकर न्यायसंगत फैसला सुना सकता था। मध्य प्रदेश के विरोध की वजह से पैदा हुई रुकावट को दूर करने के लिए, मैंने प्रधानमंत्री से न्यायाधिकरण के प्रावधान के अनुसार इस मामले को न्यायाधिकरण के सुपुर्द करने का अनुरोध किया। श्रीमती गांधी ने मेरे सुझाव को स्वीकार करते हुए इस मामले को वर्ष 1968-69 में एक कानूनी न्यायाधिकरण को सौंप दिया। दुर्भाग्यवश, मध्य प्रदेश ने कई सही और गलत हथकंडों का इस्तेमाल करते हुए मामले में देरी करने की कोशिश की।

“1972 के चुनावों के दौरान श्रीमती गांधी ने गुजरात की जनता से नर्मदा विवाद को जल्द से जल्द सुलझाने का वादा किया था। गुजरात की जनता का मानना था कि श्रीमती गांधी अगस्त 1972 में ही मामले में हस्तक्षेप करके अपना निर्णय देंगी…



वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के गांवों में सरदार सरोवर परियोजना के पानी के घुसने से डूब के शिकार हुए घर और खेत। फोटो का श्रेय: राजेश खन्ना (बच्चू)।  

 

“...बांध की ऊंचाई को 500 या 530 फ़ीट रखा जा सकता था लेकिन इसके साथ-साथ मध्य प्रदेश भविष्य में जीतनी चाहे उतनी परियोजनाएं शुरू कर सकता था। मुझे यकीन है कि अगर मध्य प्रदेश ने नर्मदा का पूरा पानी इस्तेमाल किया होता और इसकी वजह से गुजरात को अगर बिल्कुल भी पानी नहीं मिला होता तो भी गुजरात को कोई शिकायत नहीं होती। लेकिन फिर भी मध्य प्रदेश को संतोष नहीं था क्योंकि अगर उसके हितों को कोई नुकसान नहीं भी पहुंचता तो भी उसे यह मंज़ूर नहीं था कि गुजरात को नर्मदा परियोजना से कोई भी लाभ मिले।[5] इससे भी महत्वपूर्ण, नर्मदा में आने वाली भयानक बाढ़ की वजह से गुजरात के बरोड़ा और भरुच जैसे कई इलाकों को भरी मात्रा में नुकसान/क्षति उठानी पड़ती थी। इसे तब ही रोका जा सकता है जब बांध की ऊंचाई 500 फीट तक की हो। जब पचास लाख एकड़ सिंचाई का इंतज़ार कर रहे हों तो डूब में जाने वाली 99,000 एकड़ जमीन वालों की आवाज़ की अनदेखी करना मुमकिन नहीं है। जिन भूमालिकों की ज़मीनें डूब में जाने वाली हैं, चाहे गुजरात में हो या मध्य प्रदेश में, उन्हें दूसरी ज़मीनें दी जा सकती हैं और वे बेहतर स्थिति में भी होंगे...                                           




गुजरात के सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों द्वारा बरोड़ा में निकाली गई रैली। फोटो का श्रेय: अज्ञात 

 

“प्रधानमंत्री ने जनता से इस मुद्दे को जल्द हल करने का वादा किया और उनके इस वादे पर विश्वास करते हुए गुजरात की जनता ने श्रीमती इंदिरा गांधी को विधानसभा में 160 सीटों में से 140 सीटें दे दी…प्रधानमंत्री द्वारा विवाद को जल्द से जल्द हल करने का वादा करने के बावजूद 1974 तक इसका कोई समाधान नहीं निकला। इसके बजाय, उन्होंने इस मामले को न्यायाधिकरण से वापस ले लिया और बिना किसी हल के इसे लंबित रखा, और फिर 1974 के अंत में इसे वापस न्यायाधिकरण के सुपुर्द कर दिया। इसी के चलते न्यायाधिकरण के फैसले में बेवजह देरी हुई। उनका कहना था कि कोई भी फैसला लेने से दोनों में से किसी एक राज्य को नाराज़ करना होगा, इसलिए कोई फैसला नहीं लिया गया है। लेकिन यह उन्हें शुरू से ही समझ जाना चाहिए था। उन्हें गुजरात की जनता से इस मामले में जल्द फैसला लेने का वादा नहीं करना चाहिए था। अगर प्रधानमंत्री ने इस विवाद को न्यायाधिकरण से वापस नहीं लिया होता तो उसने अपना फैसला वर्ष 1974 में ही सुना दिया होता...”    

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श्री मोरारजी देसाई के वर्ष 1977-79 में प्रधानमंत्री पद पर रहने के दौरान, वर्ष 1977 के बाद घटने वाली सरदार सरोवर बांध और नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण से जुड़ी घटनाओं के बारे में श्री देसाई के विचार जान पाना और भी दिलचस्प होता। लेकिन दुर्भाग्य से, उनकी आत्मकथा - “मारु जीवन वृतांत” में सिर्फ 1975 तक की घटनाओं का ही ज़िक्र किया गया है। इसलिए श्री मोरारजी देसाई के कार्यकाल के दौरान नर्मदा/सरदार सरोवर परियोजना और नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के मामले में क्या-क्या घटित हुआ यह उनकी आत्मकथा से उन्हीं के शब्दों में जानना बहुत मुश्किल है। लेकिन, जैसा कि पहले भी कहा गया है, सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में आने वाले नर्मदा घाटी के लोगों का ठोस विश्वास है कि श्री देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण की कार्यवाही ने रफ़्तार पकड़ी और न्यायाधिकरण ने गुजरात के हक़ में फैसला देते हुए महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में बड़े स्तर पर उपजाऊ ज़मीनों और घने जंगलों को बांध के पानी में डूबाने की अनुमति दी।

मुझे पूरा विश्वास है कि तमाम चुनौतियों के बावजूद बांध के विरोध में नर्मदा घाटी में चला आ रहा जन आंदोलन आगे भी इसी तरह जारी रहेगा। 


अंत







 

 



[1] यहां इस बात पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि जहां तक नर्मदा का सवाल है, राजस्थान नर्मदा का तटीय राज्य नहीं है लेकिन इसके बावजूद उसे इस विवाद में शामिल किया गया।

[2] यहां ध्यान देने वाली बात है कि खोसला आयोग ने इतनी बड़ी परियोजना के संबंध में अपनी रिपोर्ट सिर्फ एक साल में ही तैयार कर ली।

[3] नवगाम, नर्मदा नदी के किनारे बसा एक आदिवासी गांव है, जो अब गुजरात के नर्मदा जिले में पड़ता है और उस समय सरदार सरोवर बांध की मूल स्थली था। बल्कि, सरदार सरोवर परियोजना को एक वक़्त पर नवगाम बांध के नाम से भी जाना जाता था।

[4] राजस्थान में इस बांध से कोई भी गांव या ज़मीन नहीं डूबने वाली थी।

[5] श्री मोरारजी देसाई गुजरात से थे। इसलिए मुमकिन है कि उनका यह वक्तव्य एक-तरफा हो क्योंकि मध्य प्रदेश के पास 530 फ़ीट की ऊंचाई के बांध का विरोध करने के जायज़ कारण थे- यह बांध लाखों एकड़ की कृषि और वन भूमि को डुबोने वाला था और बड़ी तादाद में लोगों को बेघर करने वाला था।

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