Saturday, 21 October 2023

मुलशी बांध सत्याग्रह और उसमें महिलाओं की भागीदारी

 


महिलाओं ने भारत के कई आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अक्सर उनके योगदान को वो स्थान नहीं दिया जाता जिसके वो हकदार हैं। महाराष्ट्र के पुणे जिले में टाटा कंपनी द्वारा बनाए जा रहे मुलशी बांध के विरोध में वर्ष 1921 में खड़ा हुआ आंदोलन देश का पहला बांध-विरोधी आंदोलन था। राजेंद्र वोरा की पुस्तक, ‘मुलशी सत्याग्रह’ के नीचे दिए गए अनुवादित अंश इस आंदोलन में महिलाओं के योगदान को उजागर करते हैं: 

 “...बुधवार, 20 अप्रैल को सत्याग्रह फिर से शुरू होने वाला था। इसलिए सत्याग्रही मंगलवार की शाम ही मावल में इकट्ठा हो गए…बुधवार की सुबह सत्याग्रह स्थल पर पांच सौ महिलाएं एकत्रित हुई…संदर्भ: केसरी: 26 अप्रैल 1921।  

“...टाटा कंपनी का काम रोकने के लिए, अलग-अलग जगहों पर सत्याग्रह किया जाना था…निर्माण सामग्री को कंपनी तक पहुंचने से रोकने का निर्णय लिया गया…भुस्कुटे (आंदोलन के एक नेता) ने अपील जारी की कि जिस तरह इंग्लैंड के युवाओं ने विश्व युद्ध में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, उसी तरह महाराष्ट्र के युवाओं को भी इस अहिंसक आंदोलन में भाग लेने के लिए सामने आना चाहिए...कार्यक्रम के अंत में कई लोगों ने स्वयंसेवक बनने की इच्छा ज़ाहिर की। एक महिला ने [आंदोलन की] सहायता के लिए अपनी सोने की चूड़ियां दान में दे दी…संदर्भ: गृह विभाग फाइल संख्या 555/1921…     

“महिलाओं की सहभागिता: इस अभियान का एक और महत्वपूर्ण पहलू था इसमें महिलाओं की सहभागिता। 24 अप्रैल को आयोजित की गई जनसभा में मावल की महिलाओं ने आश्वासन दिया था कि ‘हम इस आंदोलन में पीछे नहीं रहेंगे...जाईबाई भोइने ने नेतृत्व संभालते हुए बाकी महिलाओं के साथ आंदोलन में हिस्सा लिया। उनकी मज़दूरों के साथ झड़प हो गई...अगले दिन भी महिलाओं ने सत्याग्रह में भाग लिया…दो दिनों के बाद जाईबाई को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें तीन महीने के कठोर परिश्रम की सज़ा दी गई। इसके बावजूद, महिलाओं ने आंदोलन में भाग लेना जारी रखा।

“…अनशन के ख़त्म होने के बाद भुस्कुटे ने संगठन में नया जोश और उत्साह भरने की कोशिश की। सत्याग्रह की तारीख 22 जनवरी 1923 तय की गई। लेकिन, सरकार ने भुस्कुटे को मुलशी पेटे में आने से रोक दिया। इसके बावजूद, भुस्कुटे ने 22 जनवरी के पहले इलाके का एक चक्कर लगाया...सभी सत्याग्रही वहां इकट्ठा हो कर सामूहिक रूप से सत्याग्रह करने वाले थे। योजना के अनुसार, चालीस स्वयंसेवक और पांच महिलाएं जुलूस के लिए बांध स्थल पर इकट्ठा हुए। इन महिलाओं में भुस्कुटे की पत्नी और उनके मित्र घरेशास्त्री की पत्नी, श्रीमती वैशम्पायन शामिल थी…स्वयंसेवकों के धरने की वजह से काम को रोकना पड़ा। बाद में, इंस्पेक्टर शिंदे ने उन सभी को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पंद्रह दिनों के लिए जेल भेज दिया गया और मामला अदालत में चलता रहा और उन सभी को जेल की सजा सुनाई गई। भुस्कुटे को सबसे ज़्यादा सज़ा सुनाई गई - एक साल की जेल और पचास रूपए का जुरमाना और बाकी स्वयंसेवकों को छह महीने की जेल की सजा सुनाई गई। महिलाओं और बच्चों पर पचास रुपए का जुर्माना लगाया गया और जुर्माना न देने पर उन्हें तीन महीने के सामान्य कारावास की सजा भुगतनी थी। सभी ने सज़ा को स्वीकार किया…

“हनुमान जयंती के शुभ दिन, कई महिलाओं और पुरुषों ने सत्याग्रह में भाग लिया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अदालत में उनके खिलाफ मुक़दमा चलाया गया…श्रीमती रमाबाई कुलकर्णी (तलेगांव), श्रीमती पार्वतीबाई धोगड़े (तलेगांव), जानकीबाई घिसास (केलशी), श्रीमती सत्यभामाबाई गोविदंराओ (वर्धा), इन सभी को सज़ा सुनाई गई।

“सत्याग्रह मेला: सेनापति ने स्वयंसेवकों द्वारा किए जा रहे सत्याग्रह, उन्हें जेल भेजे जाने, उनकी रिहाई और जेल में उनके साथ किए गए अन्याय को लेकर एक अभियान शुरू किया और उसके लिए चंदा जमा करना शुरू किया। यह मेला/जनसभा श्रीमती पार्वतीबाई (दादर) की देखरेख में आयोजित की गई। उनके भाषण प्रभावी और परिणामकारी थे…

 

(मेरे द्वारा मराठी से अंग्रेजी में अनुवादित और अंग्रेजी से हिन्दी में सिद्धार्थ जोशी द्वारा अनुवादित )


मुलशी सत्याग्रह के दौरान अपनाई गई रणनीतियां

 


भारत में नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध के खिलाफ उभरने वाला नर्मदा बचाओ आंदोलन आज दुनिया का सबसे जाना-माना बांध-विरोधी आंदोलन बन चुका है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के इतने प्रसिद्ध होने का एक कारण उसके द्वारा अपनाई गई अनूठी रणनीतियां भी हैं, जैसे - ‘डूबेंगे पर हटेंगे नहीं’, ‘जल समर्पण’, इत्यादि।

       

यह बड़ी दिलचस्प बात है कि महाराष्ट्र के पुणे जिले के मुलशी बांध के खिलाफ करीब सौ साल पहले खड़े हुए आंदोलन  के दौरान भी इसी तरह की अलग-अलग रणनीतियों का इस्तेमाल किया गया था। राजेंद्र वोहरा की किताब “मुलशी सत्याग्रह” के कुछ अंश जो इन रणनीतियों पर कुछ रोशनी डालते हैं:  

अपनी ज़मीन छोड़ के न जाने का निर्णय:

“... बांध की नींव का काम चालू था…[डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों के] एक हिस्से को लगता था कि धमकियों के ज़रिए जितना ज़्यादा हो सके उतना मुआवज़ा हासिल करना अच्छा रहेगा…और बाकी हिस्सा कोई भी मुआवज़ा नहीं चाहता था और अंत तक लड़ने के पक्ष में था…इस तरह के दो हिस्से धीरे-धीरे उभर रहे थे। दूसरे हिस्से का नारा था ‘जीवन या ज़मीन’...       

 

बांध स्थल पर कब्ज़ा करना:

“मुला नदी की उत्तरी दिशा में कुछ दूरी पर एक हज़ार से दो हज़ार सत्याग्रहियों के लिए एक तंबू लगाया गया था। इस तंबू के ऊपर महाराष्ट्र का केसरी झंडा फहराया गया था…सत्याग्रह की योजना पहले से ही बनाई गई थी। सत्याग्रह कैसा होना चाहिए, इसमें किसे भाग लेना चाहिए, और इसका आयोजन कहां किया जाना चाहिए, यह सब पहले से सुनियोजित था…भुस्कुटे, सेनापति बापट और रानाडे, सत्याग्रहियों के अलग-अलग जत्थों का नेतृत्व कर रहे थे…नदी के संगम पर बांध की नींव डालने का काम चल रहा था। सत्याग्रह मंडल के अध्यक्ष, करंदीकर वहां पहुंचे। सूर्योदय से थोड़ी ही देर पहले, मावल के निवासियों और स्वयंसेवकों ने नदी तल के उस क्षेत्र को घेर लिया जहां नींव के लिए खुदाई का काम चल रहा था…कंपनी के अधिकारयों ने मज़दूरों को काम शुरू करने का आदेश दिया। मज़दूर निर्माण कार्य के लिए अपने साथ पत्थर और चुना ले कर आए थे लेकिन कहीं भी पत्थर बिछा पाना संभव नहीं था, क्योंकि पूरी जगह मावल के निवासियों से भरी हुई थी…        

 

निर्माण सामग्री को बांध स्थल तक पहुंचने से रोकना:

“अलग-अलग जगहों पर टाटा कंपनी के काम को रोकने के लिए सत्याग्रह शुरू करने का निर्णय लिया गया। निर्माण सामग्री को कंपनी तक पहुंचने से रोकने की कोशिश करने का फैसला किया गया…    

 

 

“टाटा कंपनी ने छह महीनों के लिए बांध का कार्य रोक दिया। लेकिन बांध के काम के लिए पौद और मुलशी के बीच रेल के ज़रिए परिवहन शुरू किया जाना था…शेरगांव के लोगों ने अपनी ज़मीनों पर रेलवे लाइन बिछाए जाने का विरोध किया...इसलिए कंपनी ने रेलवे लाइन बिछाने का काम सार्वजनिक ज़मीनों पर ही शुरू कर दिया...इसके समाधान के रूप में, बापट ने चिंचवाड़ के पास की रेलवे लाइन को उखाड़ने का फैसला किया...उन्होंने शेरगांव, पौद, इत्यदि जैसे गावों के वरिष्ठ लोगों को इसके लिए तैयार किया और कंपनी और जिला अधिकारीयों को नोटिस भेजा कि अगर रेलवे लाइन बिछाने का काम रोका नहीं गया तो पौद और मुलशी के बीच किसी भी जगह की रेलवे लाइन को उखाड़ दिया जाएगा...15 जून को करीब 20-30 किसान चिंचवाड़ और मुलशी को जोड़ने वाली रेलवे लाइन पर सत्याग्रह के लिए बैठ गए…और 75 मज़दूरों को बुलाकर इस सत्याग्रह को जबरन हटाया गया…जब ट्रैन शुरू हुई, तो कई सत्याग्रहियों ने ट्रैन के पहियों के नीचे लेटने की कोशिश की, लेकिन उन्हें भी जबरन वहां से हटा दिया गया। इसके बाद ही पत्थर बाज़ी शुरू हो गई जिसमें 5-6 मज़दूरों को चोट आई…          

 

धारा 144 का उल्लंघन:

“सत्याग्रह 1 मई को शुरू हुआ…केसरी (अखबार) का अनुमान था कि मावल के करीब 500 लोग और 250 स्वयंसेवक इकट्ठा हुए थे…सेनापति बापट सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहे थे…मज़दूरों ने क्षेत्र के आस-पास घेरा बना कर काम करना शुरू किया...जब सत्याग्रहियों ने अंदर घुसने के लिए घेरे को तोड़ा तो मज़दूरों ने उन्हें पीटना शुरू कर दिया, और साथ में ‘कोल्हापुर महाराज की जय’ जैसे नारे भी लगाए...अगले दिन कंपनी के गुंडों ने स्वयंसेवकों को बुरी तरह से पीटा। मावल की महिलाओं का अपमान किया गया…उन्हें उनके बालों से पकड़ कर घसीटा गया, उन पर कीचड़ फेंका गया…दोपहर के समय करीब 100 पुरुषों और महिलाओं ने ‘शिवजी महाराज की जय’ के नारे लगाए और सत्याग्रह स्थल की ओर कूच किया...उनमें से कई सत्याग्रहियों को मज़दूरों द्वारा इतनी बुरी तरह से पीटा गया कि उनमें से कुछ बेहोश हो गए…बांध की आवासीय कॉलोनी में ही न्यायलय की स्थापना की गई जहां धारा 144 का उल्लंघन करने के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों के खिलाफ मुकदमों की सुनवाई की गई…              

 

जलसमर्पण/जलसमाधि:

“जब सेनापति को जेल से रिहा किया गया, तब तक मुलशी परिषद द्वारा तय की गई तीन साल की समय सीमा पूरी हो चुकी थी; बल्कि, दी गई समय सीमा से छह महीने ज़्यादा हो चुके थे। इसलिए समसत्यग्रह की शर्तें अब मान्य नहीं थी। उन्होंने (सेनापति बापट) ने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेते हुए 6 नवंबर 1924 को ‘मुलशी का अल्पविराम’ नाम का एक पर्चा प्रकाशित किया। विषय पर पूरी तरह से सोच-विचार करने के बाद उन्होंने ‘मुलशी का पूर्ण विराम’ नाम का एक और पर्चा प्रकाशित किया। उन्होंने कहा कि अगले दिन से वे मुलशी पेटा में रहना शुरू करेंगे और जब उस क्षेत्र के मुख्य आराध्य देवता भगवान ज्योतिरूपेश्वर जल समाधि लेने वाले होंगे तो वे भी उनके साथ समाधि ले लेंगे...इस पर्चे में उन्होंने पवित्र सत्याग्रह की शपथ ली जिसमें उन्होंने हिंसा को दूसरे दर्जे का स्थान दिया...               

हिंसक संघर्ष:

“इस तरह से, हालांकि साढ़े तीन साल चलने वाला सत्याग्रह तो ख़त्म हो चुका था, लेकिन सेनापति के अनुसार, उस पर पूर्ण विराम लगाना अब भी बाकी था और यह उनके पवित्र सत्याग्रह से लगने वाला था…सत्याग्रह मंडल को भंग किया जा चुका था, यानि सामूहिक सत्याग्रह, अहिंसक सत्याग्रह अब खत्म हो चुका था। सेनापति ने अपने घर पर ही एक नया सत्याग्रह कार्यालय खोला और स्वयंसेवकों के लिए आह्वान किया। यह अपील हिंसक संघर्ष के लिए जारी की गई थी। इसके जवाब में उन्हें मिलने वाली प्रतिक्रिया बहुत अच्छी नहीं थी। सिर्फ पांच स्वयंसेवक सामने आए…भुस्कुटे को सेनापति के पवित्र सत्याग्रह में यकीन नहीं था…बलवंत गोरे ने इससे पहले समसत्यग्रह में हिस्सा लिया था और उन्हें इसके लिए सज़ा भी दी गई थी…मुलशी के ‘पूर्ण विराम’ के लिए उन्होंने हैदराबाद से एक तलवार और पिस्तौल खरीदी...आत्माराम मोदक 1921-22 में पुणे में आए थे और उन्होंने मुलशी सत्याग्रह में हिस्सा लिया था… उन्हें सेनापति के सशस्त्र सत्याग्रह में आस्था थी…

“सत्याग्रह की तारीख 9 दिसंबर तय की गई। उस दिन, सुबह, रेलगाड़ी को रोकने के लिए रेलवे लाइन पर पत्थर बिछाए गए। कुछ समय के बाद चिंचवाड़ से मज़दूरों को लाने वाली ट्रैन आई…जब ट्रैन रुकी तो पत्थर हटाने के लिए मज़दूर नीचे उतरे और सत्याग्रहियों ने उन पर तलवार से वार करके उन्हें घायल कर दिया और सेनापति ने ट्रैन चालक के पैर में गोली मार दी…इसके बाद, जैसा कि पहले ही तय कर लिया गया था, सेनापति...और उनके चार साथियों ने पौद पुलिस थाने में आत्मसमर्पण कर दिया...उन्हें जांच के दौरान छह महीने जेल में रखा गया…9 फ़रवरी को बापट का बयान दर्ज किया गया। इसमें उन्होंने समसत्यग्रह और पवित्र सत्याग्रह के बीच का फर्क समझाया और बताया कि इस सत्याग्रह का मुख्य पहलू सिर्फ शरीर को चोट पहुंचाना था, जान लेना नहीं...

“मार्च के आखिरी हफ्ते में, मामले की सुनवाई सत्र न्यायाधीश डनलॉप के सामने शुरू की हुई जो 28 मार्च तक चली। बापट ने यह स्पष्ट किया कि उनकी मंशा किसी की जान लेने की नहीं थी। ‘अगर मैं जान लेना चाहता, तो मैंने एडिनबरो में सैन्य प्रशिक्षण लिया है, मैं ऐसा बहुत आसानी से कर सकता था...न्यायपीठ ने अपने निर्णय में कहा कि सत्याग्रहियों पर सिर्फ हथियार रखने का आरोप सिद्ध हुआ है…उन्हें बाकी सभी आरोपों से बरी किया जाता है। लेकिन न्यायाधीश ने इस निर्णय को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इस मामले के दस्तावेज़ उच्च न्यायलय को भेज दिए गए। सेनापति बापट के वकील एस. आर. गोखले थे। गोखले ने न्यायमूर्ति मिर्ज़ा और न्यायमूर्ति पर्सिवल को पवित्र सत्याग्रह के मुख्य पहलुओं के बारे में बताया। पवित्र सत्याग्रह का मुख्य उद्देश्य सत्य और कर्तव्य है…इसके दो पहलू हैं, एक शरीर को दी जाने वाली सजा और दूसरा, मौत की सजा। बापट ने पहले पहलू को स्वीकारा। मुलशी सत्याग्रह के पीछे कोई राजनीतिक मकसद नहीं है। टाटा कंपनी इस क्षेत्र को डूबना चाहती है। मावल के हर एक निवासी का इस इलाके से गहरा रिश्ता है। जिस तरह से हर अँगरेज़ ट्राफलगर स्क्वायर पर बनी नेल्सन की प्रतिमा से जुड़ाव महसूस करता है उसी तरह महाराष्ट का हर व्यक्ति इस इलाके से जुड़ा हुआ महसूस करता है। इन तर्कों का अदालत पर कोई असर नहीं हुआ…

 

 

 

“अदालत ने अपना फैसला 12 जून को सुनाया। सेनापति को सात साल की सजा सुनाई गई, गोर को पांच साल; भाम्भले, मोदक और कुकड़े को तीन और देव को एक साल के कठोर कारावास की सज़ा दी गई…

((मेरे द्वारा गुजराती से English में अनुवादित और English से हिन्दी में सिद्धार्थ जोशी द्वारा अनुवादित )


 

मुलशी बांध विरोधी संघर्ष

 

मुलशी बांध: फोटो - विकीमीडिया कॉमन्स



महाराष्ट्र में मुला नदी पर टाटा कंपनी द्वारा बनाए गए बांध के खिलाफ उभरने वाला मुलशी सत्याग्रह देश का पहला बांध-विरोधी संघर्ष था, जो करीब सौ साल पहले लड़ा गया था। लेकिन इस महत्वपूर्ण और सशक्त आंदोलन के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है हालांकि राजेंद्र वोहरा की पुस्तक ‘मुलशी सत्याग्रह’ में इसके इतिहास को विस्तार से दर्ज किया गया है। इस सत्याग्रह के मुख्य नेता श्री भुस्कुटे और सेनापति बापट थे और इसमें महिलाओं ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। महात्मा गांधी के नज़दीकी सहयोगी, श्री महादेवभाई देसाई की डायरी के पन्नों के ज़रिए इस सत्याग्रह को समझना काफी दिलचस्प होगा। गांधीजी और महादेवभाई देसाई भी पूना के उसी जेल में कैद थे जिसमें मुलशी सत्याग्रहियों को बंदी बनाकर रखा गया था। महादेवभाई देसाई द्वारा उस समय लिखी गई डायरी के कुछ अंश:

 

महादेवभाई की डायरी: खंड 17, वर्ष 1923:

पृष्ठ-28: ‘मुलशी सत्याग्रहियों पर कोड़े बरसाए गए: सरकार के सूचना विभाग के प्रमुख ने यह स्वीकार किया है कि यरवदा जेल में कैद किए गए मुलशी सत्याग्रहियों[1] पर कोड़े बरसाए जाने की अफवाह बिलकुल सच है। लेकिन उनके वक्तव्य में यह खुलासा किया गया है कि कोड़े बरसाए जाने का कारण कैदियों द्वारा किया गया विद्रोह था। यह तो खुद जेलर भी जानते हैं कि विद्रोह का क्या मतलब होता है…“जेल में काम करने से इनकार करने” को भी विद्रोह कहा जा सकता है - यह हमारे लिए बड़े आश्चर्य की बात है!...    

पृष्ठ-47: ‘मुलशी पता सत्याग्रही: मुलशी सत्याग्रहियों के इस ‘विद्रोह’ का कुछ अंदेशा पहले से ही था। खुद कोड़ों की पिटाई का शिकार होने वाले श्री डी पी साणे ने शपथ के अधीन जारी किए गए अपने वक्तय्व में कुछ तथ्य उजागर किए हैं जिनके आधार पर पाठक खुद “विद्रोह” कहे जाने वाली इस कार्रवाई का अंदाजा लगा सकते हैं। उन्हें (मुलशी सत्याग्रहियों) को जेलर के सामने ले जाया गया, इसलिए नहीं क्योंकि उन्होंने दिया गया काम नहीं किया बल्कि इसलिए क्योंकि वो उतना आटा नहीं पीस पाए जितना उन्हें दिया गया था। उनके ऐसा कहने पर कि ‘जितना हो सकता है हम उतना काम कर रहे हैं,’ जान पड़ता है कि जेलर का कहना था कि ‘तुम्हारे बाप ने कभी आटा नहीं पीसा, इसलिए तुमसे आटा नहीं पीसा जा रहा, है ना?’...

(महादेवभाई) ‘... हम यह कब महसूस करेंगे कि निश्छल सेवा करने के बाद जेल भेजे गए लोगों की पीठ पर, जेल के नियमों का पालन करने के बावजूद, जो कोड़े बरसाए गए वो असल में इस देश की पीठ पर किया गया प्रहार है? जिस दिन हमें लगने लगेगा कि यह अपमान, यह कोड़े हम सभी की पीठ पर बरसाए जा रहा है, उस दिन के बाद हम इस दूषित व्यवस्था के अत्याचारों को सहन नहीं कर पाएंगे...    

पृष्ठ-231: ‘...जेल में भी शांति स्थापित नहीं करने देंगे: सूचना मिली है कि जेरामदास, जो गांधीजी के साथ जेल में बंद थे, उन्होंने भूख हड़ताल पर बैठे मुलशी पेटा सत्याग्रहियों से मुलाकात करके अपना अनशन वापस लेने का अनुरोध किया, जैसा कि गांधीजी ने उनसे करने के लिए कहा था।[2] जिस आदमी (जेरामदास) ने अच्छी भावना से कुछ अच्छा करना चाहा उसे भी (इसके लिए) सजा दी गई! सीधी लकीर की तरह जेल के नियमों का पालन करने वाले जेलर ने जेरामदास से पूछा कि उन्होंने बिना इजाज़त के जेल की अपनी कोठरी कैसे छोड़ी? और इसके लिए उन्हें (जेरामदास को) सात दिन के एकांत कारावास की सज़ा दी गई! इसके बारे में जैसे ही गांधीजी को पता चला, उन्होंने जेलर से आग्रह किया कि उन्हें भी यही सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने ही यह संदेश (जेरामदास के ज़रिए जेल में अनशन कर रहे मुलशी सत्याग्रहियों को) भेजा था। जेलर के ऐसा करने से इनकार करने पर गांधीजी ने अपने आप को सज़ा देने के लिए खुद को एक हफ्ते के एकांत कारावास में रखा।’   

पृष्ठ-233: ‘... रंग जमा (उत्साह के चरम पर): झंडे का आंदोलन (भारत के झंडे को फहराने के अधिकार के लिए आंदोलन) हमने अपनी मरज़ी से शुरू नहीं किया। अपने आत्मसम्मान के लिए यह संघर्ष हमारे लिए अनिवार्य हो गया था। सौभाग्यवश यह आंदोलन एक क्षेत्र (नागपुर) द्वारा शुरू किया गया, अगर इसे सभी क्षेत्रों द्वारा अपनाया जाता है और सफल रूप से चलाया जाता है तो यह एक अच्छा, हालांकि देरी से उठाया गया कदम होगा।   

‘यह आंदोलन (झंडा फहराने का आंदोलन) बाकी संघर्षों से कहीं ज़्यादा महत्व रखता है…मुलशी सत्याग्रह बाकी सभी मायनों में उचित है लेकिन इसे राजनीतिक स्वरुप नहीं दिया जाना चाहिए। नागपुर के आंदोलन का स्वरूप पूरी तरह से राजनीतिक है… जबलपुर में हुई क्षेत्रीय समिति की बैठक में स्थानीय आंदोलन को स्थगित करने और स्वयंसेवकों को नागपुर भेजने का प्रस्ताव पारित किया गया। तमिलनाडु की समिति भी स्वयंसेवक भेजने पर विचार कर रही है। अगर हमारी समिति भी एक निर्णय लेकर इस आंदोलन में योगदान देती है तो अच्छा रहेगा...”

 

महादेवभाई की डायरी: खंड 6, वर्ष: 1924:

पृष्ठ 186:       

               साबरमती, दिनांक: 11-9-1924

“प्रिय मित्र,

…दास्ताने और देवधर ने जुहू में बहुत बात की…जिसका मुझ पर प्रभाव पड़ा…उनके साथ हुई बातचीत से मुझे समझ आया कि सभी कार्यकर्ता अहिंसा और खादी के काम में विश्वास नहीं रखते हैं। श्री बापट का ही उदाहरण लीजिए। वे मुलशी पेटा सत्याग्रह के नेता हैं। मैंने सत्याग्रह पर उनके द्वारा लिखा हुआ पर्चा पढ़ा है…वे अहिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं…इन सभी मामलों में आंतरिक सुधार की ज़रुरत है…अगर हमारे व्यवहार में पवित्रता है तो उसका हमारे विरोध में खड़े लोगों पर जो असर होगा उसका हम अंदाज़ा नहीं लगा सकते…

आपका,

एम.के. गांधी”

 

महादेवभाई की डायरी: खंड-2, वर्ष सितंबर 1932-जनवरी 1933:

पृष्ठ-82: “शाम के समय, सेनापति बापट को एक तार भेजा गया।

(गांधीजी:) ‘अनशन करने का आपका उद्देश्य दिल छूने वाला है, लेकिन मैं चाहूंगा कि आप इन मामलों के मेरे जैसे विशेषज्ञ के विरोधी मत पर गौर करके अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। मुझे पूरा विश्वास है कि आपका यह अनशन धर्म के नज़रिए से उचित नहीं है। क्योंकि आप मेरे प्रति भावनाएं रखते हैं, इसलिए आपको मेरे साथ मृत्यु को प्राप्त नहीं होना चाहिए, बल्कि मेरे कार्य को आगे ले जाने के लिए जीवित रहना चाहिए। अगर सभी सहकर्मी मेरे साथ मृत्यु स्वीकार कर लेते हैं तो सोचिए इसका परिणाम क्या होगा। क्या यह अपराध नहीं होगा? कृपया मेरी बात माने। भगवान आपका भला करे।” (सेनापति बापट यह अनशन क्यों करना चाहते थे इसका ज़िक्र डायरी में नहीं किया गया है।)

(इसी समय के आसपास महात्मा गांधी ने के. केल्लपन को भी तार भेज कर अपना अनशन वापस लेने के लिए कहा था जो उस समय अछूत समझे जाने वाले व्यक्तियों/दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिए जाने के लिए आंदोलन कर रहे थे):

पृष्ठ 97: (महादेवभाई:) “बापू ने उन्हें एक लंबा तार भेजा, ‘...पूरी स्थिति को ध्यान में रखते हुए, मैं आपकी गलती को देख पा रहा हूँ। अनशन छोड़ कर तीन महीने का नोटिस दीजिए।’

(महादेवभाई :) “वल्लभभाई और मैं इससे काफी हैरान थे (गांधीजी द्वारा अनशन वापस लेने के बारे में केल्लपन को भेजे गए तार को लेकर)। मेरे मन मैं एक सवाल था कि यह (केल्लपन का अनशन) उनकी अंतरात्मा का विषय क्यों नहीं हो सकता? तब बापू ने कहा: ‘वो मुझसे पूछते हैं, मुझसे आशीर्वाद मांगते हैं, यह अपने आप में दर्शाता है कि यह उनकी अंतरात्मा का विषय नहीं है, लेकिन वो मेरे सुझाव के अनुसार कदम उठाते हैं। बापट मेरे खिलाफ थे, वो मेरे अनुशासन के अधीन नहीं थे, तो उन्हें कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है; लेकिन केल्लपन ने मेरे अनुशासन को स्वीकार किया है…’    

 

(मेरे द्वारा गुजराती से English में अनुवादित और English से हिन्दी में सिद्धार्थ जोशी द्वारा अनुवादित )

 

अंत

 

 

 



[1] बिजली पैदा करने के लिए, टाटा हाइड्रोलिक कंपनी पुणे के नज़दीक नीला और मुला नदी पर बांध बना रही थी जिसकी वजह से मुलशी के आसपास के गांव और खेत पानी में डूबने वाले थे। इसी वजह से वहां के लोगों ने श्री बापट और अन्य व्यक्तियों के नेतृत्व में सत्याग्रह किया। काम को करीब सात महीनों तक रोकना पड़ा। लेकिन दिसंबर 1921 में जब सत्याग्रह फिर से शुरू किया गया तो सरकार ने लोगों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें कठोर दंड दिया। इस सत्याग्रह के दौरान जेल भेजे जाने वाले आंदोलनकारियों को मुलशी सत्याग्रही के नाम से जाना जाता है। जेल में काम करने से इनकार करने के लिए उन पर 9 फरवरी 1923 को कोड़े बरसाए गए। (यह फुटनोट डायरी का ही हिस्सा हैं)   

[2] मुलशी पेटा सत्याग्रहियों को साबरमती जेल (इसे यरवदा जेल होना चाहिए) में 9-2-1923 को काम करने से इनकार करने के लिए कोड़ों से पीटा गया था; उन्हें यह समझाने के लिए कि वे काम करने से इनकार नहीं कर सकते हैं और उन्हें इसके लिए अनशन नहीं करना चाहिए, जेरामदास को गांधीजी के निर्देशों के अनुसार, जेल की अपनी कोठरी छोड़ कर जाना पड़ा। अपनी कोठरी छोड़ कर जाने के इस ‘अपराध’ के लिए जेरामदास को एक हफ्ते के एकांत कारावास की सज़ा दी गई।

Sunday, 15 October 2023

बांध और नदी के निचले इलाकों पर होने वाले उनके प्रभाव

 


हालही में तिशता नदी पर बनाए गए बांध के टूटने की और बांध के नीचे के इलाके मे तबाही की खबर ने, 2014 में  हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी पर लारजी जल विद्युत परियोजना के तहत बने बांध से अचानक पानी छोड़े जाने की वजह से हुई 24 युवा छात्रों की दुःखद मृत्यु ने, वर्ष 2005 में मध्य प्रदेश में नर्मदा के किनारे बसे धाराजी में घटी ऐसी ही एक दुर्घटना की याद एक बार फिर ताजा कर दी है। अगर आधिकारिक आंकड़ों की बात माने तो ऊपर बने नर्मदा सागर बांध से पानी छोड़े जाने की वजह से सत्तावन लोगों की मृत्यु हुई थी लेकिन गैर-आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस घटना में सौ से अधिक लोगों की जान गई है।   

हालांकि आकस्मिक रूप से होने वाली यह आपदाएं अपने आप में बहुत चिंताजनक हैं, लेकिन नदी के निचले इलाकों पर होने वाले बांध के कुछ ऐसे प्रभाव भी देखे जा सकते हैं जो स्थायी और काफी दूरगामी होतेहैं, और इन निचले इलाकों में बसने वाले लोगों के लिए गहरी समस्याओं को जन्म देते हैं। नदी के निचले इलाकों की पारिस्थितिकी और वहां बसे लोगों पर होने वाले बांधों के विपरीत प्रभावों को कई जन आंदोलनों ने रेखांकित किया है।

इन मुद्दों को प्रभावी रूप से उठाने वाला ऐसा ही एक आंदोलन, उत्तरी गुजरात में दांतीवाड़ा और सीपू बांधों के निचले इलाकों में वरिष्ठ गांधीवादी श्री चुनिभाई वैद्य के नेतृत्व में लड़ा गया। [दांतीवाड़ा बांध गुजरात के बनासकांठा जिले में बनास नदी पर बनाया गया है। सीपू नदी बनास नदी के दाहिने किनारे से जुड़ने वाली सहायक नदी है और सीपू बांध इसी पर बनाया गया है।] यह आंदोलन नदी के निचले इलाकों की पारिस्थितिकी और वहां बसे लोगों पर होने वाले बांधों के गंभीर परिणामों की ओर ध्यान खींचने वाले देश के के सबसे पहले संघर्षों में से एक था, लेकिन इसका बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।     

दांतीवाड़ा बांध - फोटो: नर्मदा, जल संसाधन, जल आपूर्ति और कल्पसर विभाग, गुजरात सरकार


इस संघर्ष की अगुवाई करने वाले संगठन, गुजरात लोकसमिति के एक महत्वपूण्र दस्तावेज़ के (मेरे द्वारा गुजराती से इंग्लिश मे अनुवाद किए जाने के बाद, इंग्लिश से हिन्दी में अनुवाद सिद्धार्थ जोशी ने किया हैं। ) कुछ अंश नीचे दिए गए हैं, जो बांधों के नदी के निचले इलाकों पर होने वाले प्रभावों और तटीय जल अधिकारों पर रोशनी डालेंगे:    

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गुजरात लोकसमिति

दिनांक: 18-9-1989

“जब गुजरात लोकसमिति और साथी संगठनों के एक प्रतिनिधिमंडल ने सोमवार दिनांक 18-9-1989 को मुख्यमंत्री श्री अमरसिंह चौधरी, जल संसाधन मंत्री श्री विजयदास महंत और अन्य अधिकारियों से मुलाकात की तो अन्य विषयों के साथ नीचे दिया गया नोट भी संलग्न किया गया था:

                                                           

विषय:

  1. दांतीवाड़ा बांध से पानी छोड़ा जाना
  2. सीपू बांध के निर्माण कार्य को रोका जाना

खुद मुख्यमंत्री ने भी कई बार यह स्वीकार किया है कि नदी के पानी का अधिकार सिर्फ गुजरात या देश के कानून का हिस्सा ही नहीं है बल्कि इसे अंतरराष्ट्रीय कानून में भी जगह दी गई है और इसके अनुसार नदी के निचले इलाकों में बसे लोगों के लिए भी पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए...पानी के बहाव को रोका नहीं जाना चाहिए ताकि पानी के साथ आने वाली गाद भी सितंबर के महीने तक पानी के साथ बहती रहे।

इस मुद्दे को विश्व बैंक के कार्य प्रबंधक... केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष...योजना आयोग के सदस्य…द्वारा भी स्वीकार किया गया।

चार दिन पहले, हम रात को करीब दस बजे राधनपुर तालुका के गुलाबपुरा गांव गए थे। वहां हमने रात को महिलाओं को अपने घरों से निकल कर एक मटका पानी भरने के लिए बाहर जाते हुए देखा, जिसे भरने में उन्हें 3-4 घंटों का समय लग रहा था…ऐसे भी गांव हैं जो ऐसे तालाबों का पानी पीते हैं जिनमें इंसानों और जानवरों का मल-मूत्र मिला हुआ होता है। ऐसे भी गांव हैं जो भारी/खारा पानी पीते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। और ऐसे गांव जिनमें पहले पानी की कोई भी समस्या नहीं थी, उन्हें भी अब स्त्रोत-रहित घोषित कर दिया गया है और पानी पहुंचाने के लिए बिछाए गए पाइप के ज़रिए उन्हें सप्ताह में 2-4 दिन भी पानी नहीं मिल पाता है। सिर्फ चार नलों से पानी भरने की कोशिश कर रही चार सौ महिलाओं का यह नज़ारा...बहुत आम है। 

हमारा दावा है कि इन सभी दिक्कतों की वजह दांतीवाड़ा [बांध] है। दांतीवाड़ा बांध के निर्माण के पहले यह मुश्किलें नहीं थी। इस बुरी हालत की जड़ दांतीवाड़ा बांध है।

  1. तटीय जल अधिकारों के नज़रिए से, दांतीवाड़ा के पानी पर पहला अधिकार नदी के निचले इलाकों में बसे लोगों का है। मुख्यमंत्री ने भी स्वीकार किया है कि नदी के पानी को सितंबर तक खुले तौर पर बहने देना चाहिए। पिछले पच्चीस सालों के अनुभव से यह साफ़ हो जाता है कि बांध बनाने वालों ने इसे गलती से इतना बड़ा बना दिया कि यह कभी भी पूरा नहीं भरेगा और नदी का पानी नदी के निचले इलाकों में रहने वालों लोगों तक कभी भी पहुंचने नहीं वाला है। यह देखते हुए कि नदी के पानी पर पहला अधिकार निचले इलाकों के लोगों का है, नदी के पानी को 530 फ़ीट की ऊंचाई पर छोड़ा जाना चाहिए। ऐसा करने पर, गाद भी पानी के साथ बह पाएगी और बांध में गाद के जमा होने की रफ़्तार भी धीमी हो पाएगी।
  2. दांतीवाड़ा की परियोजना रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि सीपू का पानी निचले इलाकों के लोगों तक बिना किसी रुकावट के पहुंच पाएगा। पूरी गंभीरता के साथ किए गए इस लिखित वादे की अवहेलना करते हुए अब सीपू बांध का निर्माण किया जा रहा है। यह अनैतिक है। 50 करोड़ खर्च हो जाने के बाद अब और 50 करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। सरकार सौ करोड़ पानी में बहाने और निचले इलाकों की बर्बादी को न्योता देने की इतनी जल्दी में क्यों है? सीपू बांध के निर्माण कार्य को रोकने के बारे में गंभीरता से विचार करना आज बहुत ज़रूरी है।
  3. यह दावा कि बांध के निचले इलाकों में 944 वर्ग मील का जलग्रह (कैचमेंट) क्षेत्र है गुमराह करने वाला तर्क है...इस साल भी नदी का बहाव सिर्फ 4-5 दिनों तक ही सीमित था…सभी देख सकते हैं कि आज भी नदी पूरी तरह से सूखी है।     
  4. …आपने कई बार यह कहा है कि बांध के पानी को छोड़ा जाएगा। दांतीवाड़ा की परियोजना रिपोर्ट में भी कहा गया है कि निचले इलाकों के इस्तेमाल के लिए बांध से पानी छोड़ा जाएगा। लेकिन इतने सालों में ऐसा एक बार भी नहीं किया गया…
  5. कांकरेज के किनारे बसे गांवों और दूर के गांवों में एक कहावत प्रचलित थी कि ‘...कीचड़ उठाओगे तो पानी पाओगे...’। 7-8-10 और 15 फीट की गहराई पर पानी मिल जाता था...इसलिए लोग हर खेत में एक कुआं रखना पसंद करते थे। ऐसे हज़ारों कुएं हुआ करते थे…जनता बैंक के अध्यक्ष के अनुसार…, करीब छह हज़ार कुंओं के निर्माण के लिए सीमेंट के ढांचों का इस्तेमाल किया गया था। आज इनमें से एक भी कुएं में पानी नहीं है। करीब 10-15 हज़ार खेतों में आज इन कुओं से सिंचाई के लिए कोई पानी नहीं है। कांकरेज में करोड़ों की कीमत वाली आलू की फसल हुआ करती थी, हज़ारों की तादाद में बाहर से आने वाले खेत मज़दूरों को यहां काम मिला करता था, आलू की खेती के लिए नदी तल की ज़मीन की नीलामी की जाती थी और इससे किसान लाखों की कमाई करते थे। दांतीवाड़ा बांध के बनने के बाद यह सब खत्म हो गया। जहां पानी  7-8-10-15 फ़ीट की गहराई पर ही मिल जाता था वहां भूजल का स्तर अब 400-500 से 800-900 फ़ीट तक चला गया है। इसके लिए बिजली का इस्तेमाल आज एक बड़ा मुद्दा बन गया है। दांतीवाड़ा के निर्माण से पहले यह समस्या बिलकुल भी नहीं थी। इतना पैसा खर्च करने के बाद हमने आखिर हासिल क्या किया, यह आज एक बड़ा मुद्दा है। उम्ब्री-शिहोरी जल पाइपलाइन के लिए नदी के तल में सात कुएं खोदे गए…इसकी वजह से भूजल स्तर गिरता जा रहा है। पहले पानी 8 मीटर की गहराई पर उपलब्ध था और आज 35 मीटर की गहराई तक जा चुका है। और स्थिति तब है जब अभी तक सीपू बांध नहीं बना है और नदी अब भी बह रही है। अगर सीपू बांध बनता है तो यह पाइपलाइन भी सूखी पड़ जाएगी। और फिर हमें गांवों तक टैंकरों के ज़रिए पानी पहुंचाने के लिए भागदौड़ करनी पड़ेगी। नदी को छीन लेने और पाइपलाइन को सुखा देने के बाद, अब हम तेज़ी से ऐसी स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं जहां टैंकरों के ज़रिए पानी पहुंचाने की नौबत आने वाली है।
  6. दांतीवाड़ा के नीचे के इलाकों में करीब दो लाख एकड़ ज़मीनों में गाद जमी हुई है…अगर सरकार चाहे तो इसकी जांच करने के लिए एक समिति का गठन कर सकती है…गुजरात लोकसमिति और साथी संगठनों के प्रतिनिधियों को भी इस समिति में जगह दी जानी चाहिए…
  7. हम यहां एक और महत्वपूर्ण मुद्दा उठाना चाहेंगे - दांतीवाड़ा बांध के निर्माण पर, उसके रखरखाव पर…निवेश की गई पूंजी पर चुकाए गए ब्याज पर...कर्मचारियों के वेतन, इत्यादि पर किए गए खर्च से होने वाली आय कितनी है? अगर आप इस खर्च के साथ होने वाली आय की तुलना करेंगे...तो आप राष्ट्रीय उत्पादन को होने वाले नुकसान का अंदाजा लगा पाएंगे...       
  8. हमने यहां जो सुझाव दिए हैं वो रचनात्मक हैं और सरकार के लिए उपयोगी साबित होंगे...

 

हस्ताक्षर:

राजू पुरोहित,

संयोजक,

बनासकांठा जिला लोकसमिति

इलाबेन पाठक

सचिव,

अहमदाबाद महिला कार्रवाई समूह 

चुनिभाई वैद्य

अध्यक्ष,

गुजरात लोकसमिति

 

-अंत-


Thursday, 12 October 2023

कार्यालयों की भी होती है अपनी-अपनी कहानी --- नर्मदा बचाओ आंदोलन और उसके कार्यालय

 

कार्यालयों की भी होती है अपनी-अपनी कहानी

नर्मदा बचाओ आंदोलन और उसके कार्यालय


राज्य की सत्ता हमेशा उन जन आंदोलनों को कुचलने की कोशिश करती है जो सामूहिक ताकत -सामूहिक निश्चय, सामूहिक दृढ़ता, सामूहिक आवाज़ और सामूहिक प्रतिरोध - के दम पर खड़े होते हैं। जन आंदोलनों और सामूहिक प्रतिरोध को न तो विदेशी पैसे की ज़रुरत होती है न ही हथियारों की। आज़ाद भारत के सबसे सशक्त जनांदोलनों में से एक, नर्मदा बचाओ आंदोलन, साधारण कार्यालयों से चलाया जाता रहा है। यह कार्यालय आंदोलन के कार्यकर्ताओं और सदस्यों के लिए रहने के लिए घरों का काम भी करते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सभी कार्यालय बहुत ही साधारण थे, कुछ में नल के पानी की व्यवस्था नहीं थी, आदिवासी इलाकों में स्थित कार्यालयों में बिजली की सुविधा नहीं थी। कोई पलंग या बिछौना या कुर्सी या मेज  भी नहीं। कार्यकर्ता दरियों पर सोते थे और साधारण सा खाना बनाकर खाते थे। काफी समय के बाद ही तीन कार्यालयों में पुराने कम्प्यूटरों और कामचलाऊ मेज़ों की व्यवस्था की गई।

नर्मदा बचाओ आंदोलन दमनकारी राज्य द्वारा नर्मदा नदी पर जबरन बनाए जा रहे विनाशकारी बांध के खिलाफ अपने अहिंसक संघर्ष का संचालन इन बहुत ही मामूली सुविधा वाले कार्यालयों से ही करता रहा। इन्हीं कार्यालयों से नर्मदा बचाओ आंदोलन ने ताकतवर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी और विश्व बैंक को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। इनमें से कुछ कार्यालय दशकों के लंबे संघर्ष के बाद आज भी सक्रिय हैं और इनमें से जो सक्रिय नहीं भी हैं उनकी कहानियां आज भी ज़िंदा हैं।

नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति का पहला कार्यालय नर्मदा के किनारे नहीं बल्कि मध्य प्रदेश के मनावर जिले के तवलई गांव में स्थित गांधी आश्रम/स्कूल में शुरू हुआ था। नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे विशाल बांधों को चुनौती देने के उद्देश्य से शुरू किए गए इस कार्यालय की स्थापना वरिष्ठ गांधीवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी, जिसमें स्वर्गीय श्री काशिनाथजी त्रिवेदी, स्वर्गीय श्री बैजनाथ महोदय, श्री प्रभाकर मांडलिकजी जैसे अनुभवी लोग शामिल थे। इस मुहिम में उनका साथ देने वालों में स्थानीय किसान और स्वर्गीय श्री फुलचंदभाई पटेल (जिन्होंने तवलई आश्रम के लिए अपनी ज़मीन दान में दी थी), स्वर्गीय श्री शोभारामभाई जाट, स्वर्गीय श्री अम्बारामभाई मुकाती, स्वर्गीय श्री सूरजमलजी लुंकड और कई अन्य सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल थे।

तवलई (मध्य प्रदेश) में स्थित नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति का कार्यालय (फोटो श्रेय - अज्ञात)




बाद में, जैसे-जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन का विस्तार हुआ और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ी, बड़वानी (मध्य प्रदेश) में नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति के उप-कार्यालय की स्थापना की गई। हालांकि आगे चलकर यह नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुख्य कार्यालय बन गया लेकिन तब भी इसे नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति उप-कार्यालय ही बुलाया जाता रहा। नर्मदा बचाओ आंदोलन को यह कार्यालय सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में आने वाले 245 गांवों में से एक गांव, बागुड़ के एक किसान, श्री बद्रीभाई जाट ने दिया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने कई वर्षों तक इस कार्यालय का इस्तेमाल किया लेकिन बद्रीभाई ने इसके लिए कभी भी कोई किराया नहीं लिया।        

फोटो में (बालकनी में) नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति और नर्मदा बचाओ आंदोलन के संस्थापकों में से एक, बागुड़ गांव के श्री शोभारामभाई जाट। फोटो श्रेय: अज्ञात

   


बाद में, जब ऊपर दिखाए गए कार्यालय की मरम्मत करने की ज़रुरत पड़ी तो नर्मदा के वरिष्ठ सदस्य और बड़वानी के सम्मानीय निवासी स्वर्गीय श्री महाजनसाब वकील ने कार्यालय के रूप में इस्तेमाल के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन को अपनी घर की ईमारत उपलब्ध कराई। इसी इमारत से नर्मदा बचाओ आंदोलन का दो दशकों तक संचालन किया गया।     

नर्मदा बचाओ आंदोलन का बड़वानी कार्यालय जिसमें वरिष्ठ कार्यकर्ता जो अथिअली और चित्तरूपा पलित (सिल्वी) को देखा जा सकता है। पीठ करके बैठे हुए व्यक्ति संभवतः सर्वोदय प्रेस सेवा (इंदौर) के डॉ. सम्यक हैं। 




नर्मदा बचाओ आंदोलन की वरिष्ठ महिला नेता - बाएं से रुकमणीबेन पाटीदार, कमलूबेन यादव (डूब-प्रभावित गांव छोटा बड़दा) और नर्मदा बचाओ आंदोलन के युवा पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं में से एक छोगालाल डावर (डूब-प्रभावित गांव छोटा कुंडिया) 


जब स्वर्गीय श्री बाबा आमटे ने आनंदवन छोड़ कर बड़वानी के नज़दीक नर्मदा नदी के किनारे बसे गांव, छोटा कासरवाद में बसने का फैसला किया तो बड़वानी शहर के लोगों के योगदान से नर्मदा घटी के लोगों ने उनके लिए एक छोटे से घर का निर्माण किया। इस तीन कमरे के घर का नाम निजबल रखा गया, और बाबा ने अपनी पत्नी साधना ताई के साथ इस घर में करीब एक दशक का लंबा समय गुज़ारा। अपनी और साधना ताई की बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के कारण बाबा के आनंदवन लौट जाने के बाद, उनके इस घर की देखरेख, जिसे बाबा और उनकी टीम ने तब तक पेड़ लगाने के ज़रिए हरा-भरा बना दिया था, नर्मदा बचाओ आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता रहमत और स्वर्गीय श्री गंगारामभाई यादव ने की। लेकिन, यह सरकार को सहन नहीं हुआ और उसने लोगों के विरोध के बावजूद मकान को जबरन सील बंद कर दिया। निजबल, जो एक समय नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर परियोजना और बड़े बांधों के खिलाफ संघर्ष का केंद्र हुआ करता था, आज खस्ता हालत में है।   

महाराष्ट्र में सरदार सरोवर परियोजना के पानी में डूबने वाले पहले आदिवासी गांव, मणिबेली में स्थित नर्मदा बचाओ आंदोलन का प्रसिद्ध कार्यालय, नर्मदा आई, 1990 के दशक के दौरान कई वर्षों तक संघर्ष का केंद्र बना रहा। इसी कार्यालय में विश्व बैंक द्वारा गठित मोर्स आयोग की नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ पहली बैठक हुई। मणिबेली का जन संघर्ष पूरी दुनिया में इतना मशहूर हुआ कि इसके चलते, जब दुनिया के कई संगठनों ने विश्व बैंक द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता पर रोक लगाने का आह्वान किया तो इसे ‘मणिबेली घोषणा’ कहा गया। मणिबेली घोषणा की वजह से ही बांधों पर विश्व आयोग का गठन किया गया। देखें: http://pdf.wri.org/wcd_chapter_3.pdf, मणिबेली के संघर्ष पर अधिक जानकारी के लिए देखें: http://www.frontline.in/static/html/fl2701/stories/19930813112.htm   

   

मणिबेली में नर्मदा आई, फोटो श्रेय: अज्ञात




महाराष्ट्र सरकार द्वारा पुलिस की मदद से नर्मदा आई को निस्तेनाबूत करने के बाद इसे आदिवासी समुदायों में लाहा नाम से प्रचलित सामूहिक श्रम की परंपरा की मदद से फिर से खड़ा किया गया।


नर्मदा आई के सामने खड़े नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता शांतिलाल यादव और रामा अत्या



नर्मदा आई का कामकाज स्वर्गीय श्री गंगारामभाई यादव (डूब-प्रभावित गांव छोटा बड़दा के निवासी गंगारामभाई को ऊपर तस्वीर में बीच में देखा जा सकता है) के बिना संभव नहीं होता जो इस कार्यालय की देखरेख और हर महीने आने वाले सैंकड़ों मेहमानों की देखभाल में अपन पूरा समय लगा देते थे। इसमें उनका सहयोग देने वाले अन्य कार्यकर्ता भी थे। ऊपर की तस्वीर में दाईं ओर खड़े गेंदालाल मुजाल्दे खड़े हैं - आंदोलन के कई पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं में से एक, जो डूब-प्रभावित गांव कुंडिया से थे। तस्वीर में सामने की ओर लायला मेहता को बैठे हुए देखा जा सकता है जो नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ने वाले कई अंतर्राष्ट्रीय छात्रों और शोधकर्ताओं में से एक थी। फिलहाल वे ब्रिटेन के ससेक्स विश्वविद्यालय के आईडीएस संस्थान में एक रिसर्च फेलो हैं। तस्वीर में दिखाई देने वाले अन्य व्यक्ति नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य और नर्मदा घाटी के परियोजना-प्रभावित व्यक्ति हैं।          



नर्मदा आई में नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्पित दल की सदस्य अरुंधति धुरु और उनके साथ अंतरराष्ट्रीय नदी नेटवर्क के वरिष्ठ सदस्य पैट्रिक मकल्ली जिन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा विश्व बैंक के खिलाफ चलाए गए अभियान में सहयोग दिया।      



बिना किसी पुनर्वास के सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई को बढ़ाए जाने से आने वाली गैर-कानूनी डूब के कारण नब्बे के दशक के मध्य में नर्मदा आई भी जलमग्न हो गया।  

नर्मदा बचाओ आंदोलन का बड़ोदा कार्यालय भी संघर्षों के प्रमुख केंद्रों में से एक था। शुरुआत में वड़ोदरा कामगार संगठन ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को अपनी जगह दी और कई सालों तक आंदोलन का दफ्तर वड़ोदरा कामगार संगठन के कार्यालय से चलाया गया। लेकिन जैसे-जैसे गुजरात में आंदोलन बढ़ा और फैला और इसके साथ गुजरात में काम करने वाले पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की संख्या भी बढ़ने लगी तो कार्यालय के लिए अपनी खुद की (किराये की) जगह ली गई (नीचे देखें)। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि डूब-प्रभावित गांवों से कई लोग अपने इलाज के लिए बड़ोदा कार्यालय आया करते थे। यही नहीं, बड़ोदा कार्यालय नर्मदा बचाओ आंदोलन को बाकी दुनिया से जोड़ने वाली कड़ी बन गया।

नर्मदा बचाओ आंदोलन के बड़ोदा कार्यालय में आंदोलन के कार्यकर्ता अलोक अग्रवाल और किरण। फोटो श्रेय: अज्ञात




नर्मदा बचाओ आंदोलन के बड़ोदा कार्यालय में आंदोलन के कार्यकर्ता श्रीपद धर्माधिकारी और उनके साथ जापान से आई आंदोलन की अंतर्राष्ट्रीय समर्थक, जहां चलाए गए सफल अभियान की वजह से जापान सरकार को सरदार सरोवर परियोजना से अपना समर्थन वापस लेने पर मजबूर होने पड़ा था।   


 

भाजपा और कांग्रेस पार्टी के गुंडों द्वारा इस कार्यालय पर हमला करने और इसे तहस-नहस कर देने के बाद नर्मदा बचाओ आंदोलन को मजबूर होकर अपना खुद का कार्यालय शुरू करना पड़ा क्योंकि सरकार और गुंडों के डर से कोई भी मकान-मालिक आंदोलन को कार्यालय के लिए अपना मकान किराये पर देने के लिए तैयार नहीं था। हालांकि, वड़ोदरा कामगार संगठन, स्वाश्रय और अन्य समर्थकों के कार्यालय आंदोलन के लिए चौबीसों घंटे खुले थे। रमेशभाई कचौलिया, विजयाताई चौहान, स्वर्गीय श्री कमलाकर धर्माधिकारी और स्वर्गीय श्री के. के. ओझा जैसे आंदोलन के समर्थकों के आर्थिक योगदान से बड़ौदा में नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए एक कार्यालय खरीदा गया (नीचे देखें):    

नर्मदा कार्यकर्ता: मेधा पाटकर, श्रीपद धर्माधिकारी, रघु रघुवंशी, सुकुमारन कृष्णन, स्वर्गीय संजय सांगवाई और उनके साथ आंदोलन के समर्थक, जैसे, गुजरात के वरिष्ठ गांधीवादी राजूभाई, दीप्तिबेन, प्रोफेसर गौतम अप्पा, इत्यादि




 नर्मदा बचाओ आंदोलन के बड़ोदा कार्यालय में स्वर्गीय संजय सांगवाई और दीपक यादव




सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित केवड़िया कॉलोनी में नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय आंदोलन के वरिष्ठ आदिवासी नेता मूलजीभाई तड़वी के घर से चलाया जाता था। मूलजीभाई की ज़मीनें गुजरात में बनाई गई केवड़िया कॉलोनी के निर्माण में चली गई थी। आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता जैसे स्वर्गीय श्री तेताभाई वसावे, इत्यादि यहीं रहा करते थे और यहीं से काम करते थे। बाद में, नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय कोठी नाम के आदिवासी गांव के निवासी और आंदोलन की तेज़तर्रार नेता, स्वर्गीय बलिबेन तड़वी के घर से चलाया गया। बलिबेन की ज़मीनें भी परियोजना के लिए बनाई गई कॉलोनी में चली गई थी। गुजरात में कई सालों तक आंदोलन का काम इन्हीं मिट्टी और खपरैल से बने मकानों से किया गया।       

नर्मदा बचाओ आंदोलन के कोठी कार्यालय में दाईं तरफ, आंदोलन और जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से एक देवरामभाई कनेरा और उनकी पत्नी और खुद नर्मदा बचाओ आंदोलन की एक महत्वपूर्ण सदस्य, शकुंतलाभाभी। बाईं तरफ नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता स्वर्गीय गोपाल मुजाल्दे।    



बलिबेन की मृत्यु के बाद, नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय वाघड़िया गांव में आंदोलन के वरिष्ठ नेता प्रभुभाई तड़वी और कपिलाबेन तड़वी के घर से चलाया गया। वाघड़िया भी बांध के नज़दीक स्थित परियोजना की कॉलोनी से प्रभावित गांव था।  

उसके बाद, नमर्दा बचाओ आंदोलन के कार्यालय मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के डूब-प्रभावित आदिवासी गांवों क्रमशः जालसिंधी और डोमखेड़ी से संचालित किया गया। इस कार्यालयों को लोगों ने ही लाहा की परंपरा के ज़रिए खड़ा किया था। सरदार सरोवर परियोजना की वजह से होने वाली गैर-कानूनी डूब में यह कार्यालय भी जलमग्न हो गए। 

नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता क्लिफ्टन डी’रोज़ारीयो और सम्भवतः स्वर्गीय शोभा वाघ



क्योंकि नर्मदा बचाओ आंदोलन के मामला की सुनवाई कई वर्षों तक दिल्ली में स्थित सर्वोच्च न्यायालय में चलती रही, इसकी वजह से नब्बे के दशक में कई सालों के दौरान दिल्ली फोरम ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं को अपने दफ्तर में जगह दी, जो वहां रहते थे और वहीं से अपना काम करते थे। यह सिलसिला तब तक चला जब तक सर्वोच्च न्यायालय ने बांध के निर्माण कार्य को हरी झंडी दिखाते हुए अपना फैसला नहीं सुना दिया।

फोटो श्रेय: अज्ञात




ऊपर दी गई तस्वीर दिल्ली फोरम के कार्यालय की है जहां से दिल्ली में नर्मदा बचाओ आंदोलन का काम किया जाता था।  इसमें अशोकभाई शर्मा को देखा जा सकता है जो एक बेहतरीन कार्यकर्ता थे और देश भर के जन आंदोलन जब सत्ता के दरवाज़े खटखटाने राजधानी दिल्ली आते थे तो अशोकभाई हमेशा उनके समर्थन और सहयोग में मौजूद रहते थे। 

नब्बे के दशक के लंबे समय के दौरान नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुंबई में भी एक कार्यालय था जो आंदोलन के समर्थकों द्वारा दी गई जगह से चलाया जाता था और जिसका कामकाज वरिष्ठ पूर्णकालिक कार्यकर्ता देखा करते थे जिनमें नारीवादी लेखक और शोधकर्ता लता प्रमा भी शामिल थी।    

नर्मदा बचाओ आंदोलन का सबसे लंबे समय तक सक्रिय रहने वाला कार्यालय धडगाव, महाराष्ट्र में स्थित था। दुर्भाग्य से, इस कार्यालय की तस्वीर मेरे संग्रह में मौजूद नहीं है। नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय फिलहाल बड़वानी में है जो एक स्थानीय निवासी द्वारा दान में दी गई ज़मीन पर खड़ा किया गया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा नदी और बर्गी इलाके में बनाए जा रहे अन्य बड़े बांधों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए मंडलेश्वर और खंडवा में भी कुछ छोटे कार्यालयों की स्थापना की थी। लेकिन इनकी भी कोई तस्वीर मेरे पास नहीं है। यहां जिन कार्यालयों का ज़िक्र किया गया है उसके अलावा भी कई कार्यालय शुरू किए गए थे।     

हाशिए के शोषित समुदायों के आंदोलनों की ताकत सच्चाई, दृढ़ निश्चय और प्रतिबद्धता पर टिके उनके सामूहिक प्रतिरोध से आती है। हथियार, जेल और बेहिसाब संसाधन (चाहे घरेलू संसाधन हों या कॉर्पोरेट और अंतर्राष्ट्रीय संसाधन) तो सत्ता के पास होते हैं, जिनके ज़रिए वो न्याय और समता के लिए लड़े जा रहे जन सघर्षों और प्रतिरोध को कुचलने की कोशिश करती है। इसे जितनी जल्दी स्वीकार कर लिया जाएगा, उतना बेहतर होगा।