Saturday 21 October 2023

मुलशी बांध विरोधी संघर्ष

 

मुलशी बांध: फोटो - विकीमीडिया कॉमन्स



महाराष्ट्र में मुला नदी पर टाटा कंपनी द्वारा बनाए गए बांध के खिलाफ उभरने वाला मुलशी सत्याग्रह देश का पहला बांध-विरोधी संघर्ष था, जो करीब सौ साल पहले लड़ा गया था। लेकिन इस महत्वपूर्ण और सशक्त आंदोलन के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है हालांकि राजेंद्र वोहरा की पुस्तक ‘मुलशी सत्याग्रह’ में इसके इतिहास को विस्तार से दर्ज किया गया है। इस सत्याग्रह के मुख्य नेता श्री भुस्कुटे और सेनापति बापट थे और इसमें महिलाओं ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। महात्मा गांधी के नज़दीकी सहयोगी, श्री महादेवभाई देसाई की डायरी के पन्नों के ज़रिए इस सत्याग्रह को समझना काफी दिलचस्प होगा। गांधीजी और महादेवभाई देसाई भी पूना के उसी जेल में कैद थे जिसमें मुलशी सत्याग्रहियों को बंदी बनाकर रखा गया था। महादेवभाई देसाई द्वारा उस समय लिखी गई डायरी के कुछ अंश:

 

महादेवभाई की डायरी: खंड 17, वर्ष 1923:

पृष्ठ-28: ‘मुलशी सत्याग्रहियों पर कोड़े बरसाए गए: सरकार के सूचना विभाग के प्रमुख ने यह स्वीकार किया है कि यरवदा जेल में कैद किए गए मुलशी सत्याग्रहियों[1] पर कोड़े बरसाए जाने की अफवाह बिलकुल सच है। लेकिन उनके वक्तव्य में यह खुलासा किया गया है कि कोड़े बरसाए जाने का कारण कैदियों द्वारा किया गया विद्रोह था। यह तो खुद जेलर भी जानते हैं कि विद्रोह का क्या मतलब होता है…“जेल में काम करने से इनकार करने” को भी विद्रोह कहा जा सकता है - यह हमारे लिए बड़े आश्चर्य की बात है!...    

पृष्ठ-47: ‘मुलशी पता सत्याग्रही: मुलशी सत्याग्रहियों के इस ‘विद्रोह’ का कुछ अंदेशा पहले से ही था। खुद कोड़ों की पिटाई का शिकार होने वाले श्री डी पी साणे ने शपथ के अधीन जारी किए गए अपने वक्तय्व में कुछ तथ्य उजागर किए हैं जिनके आधार पर पाठक खुद “विद्रोह” कहे जाने वाली इस कार्रवाई का अंदाजा लगा सकते हैं। उन्हें (मुलशी सत्याग्रहियों) को जेलर के सामने ले जाया गया, इसलिए नहीं क्योंकि उन्होंने दिया गया काम नहीं किया बल्कि इसलिए क्योंकि वो उतना आटा नहीं पीस पाए जितना उन्हें दिया गया था। उनके ऐसा कहने पर कि ‘जितना हो सकता है हम उतना काम कर रहे हैं,’ जान पड़ता है कि जेलर का कहना था कि ‘तुम्हारे बाप ने कभी आटा नहीं पीसा, इसलिए तुमसे आटा नहीं पीसा जा रहा, है ना?’...

(महादेवभाई) ‘... हम यह कब महसूस करेंगे कि निश्छल सेवा करने के बाद जेल भेजे गए लोगों की पीठ पर, जेल के नियमों का पालन करने के बावजूद, जो कोड़े बरसाए गए वो असल में इस देश की पीठ पर किया गया प्रहार है? जिस दिन हमें लगने लगेगा कि यह अपमान, यह कोड़े हम सभी की पीठ पर बरसाए जा रहा है, उस दिन के बाद हम इस दूषित व्यवस्था के अत्याचारों को सहन नहीं कर पाएंगे...    

पृष्ठ-231: ‘...जेल में भी शांति स्थापित नहीं करने देंगे: सूचना मिली है कि जेरामदास, जो गांधीजी के साथ जेल में बंद थे, उन्होंने भूख हड़ताल पर बैठे मुलशी पेटा सत्याग्रहियों से मुलाकात करके अपना अनशन वापस लेने का अनुरोध किया, जैसा कि गांधीजी ने उनसे करने के लिए कहा था।[2] जिस आदमी (जेरामदास) ने अच्छी भावना से कुछ अच्छा करना चाहा उसे भी (इसके लिए) सजा दी गई! सीधी लकीर की तरह जेल के नियमों का पालन करने वाले जेलर ने जेरामदास से पूछा कि उन्होंने बिना इजाज़त के जेल की अपनी कोठरी कैसे छोड़ी? और इसके लिए उन्हें (जेरामदास को) सात दिन के एकांत कारावास की सज़ा दी गई! इसके बारे में जैसे ही गांधीजी को पता चला, उन्होंने जेलर से आग्रह किया कि उन्हें भी यही सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने ही यह संदेश (जेरामदास के ज़रिए जेल में अनशन कर रहे मुलशी सत्याग्रहियों को) भेजा था। जेलर के ऐसा करने से इनकार करने पर गांधीजी ने अपने आप को सज़ा देने के लिए खुद को एक हफ्ते के एकांत कारावास में रखा।’   

पृष्ठ-233: ‘... रंग जमा (उत्साह के चरम पर): झंडे का आंदोलन (भारत के झंडे को फहराने के अधिकार के लिए आंदोलन) हमने अपनी मरज़ी से शुरू नहीं किया। अपने आत्मसम्मान के लिए यह संघर्ष हमारे लिए अनिवार्य हो गया था। सौभाग्यवश यह आंदोलन एक क्षेत्र (नागपुर) द्वारा शुरू किया गया, अगर इसे सभी क्षेत्रों द्वारा अपनाया जाता है और सफल रूप से चलाया जाता है तो यह एक अच्छा, हालांकि देरी से उठाया गया कदम होगा।   

‘यह आंदोलन (झंडा फहराने का आंदोलन) बाकी संघर्षों से कहीं ज़्यादा महत्व रखता है…मुलशी सत्याग्रह बाकी सभी मायनों में उचित है लेकिन इसे राजनीतिक स्वरुप नहीं दिया जाना चाहिए। नागपुर के आंदोलन का स्वरूप पूरी तरह से राजनीतिक है… जबलपुर में हुई क्षेत्रीय समिति की बैठक में स्थानीय आंदोलन को स्थगित करने और स्वयंसेवकों को नागपुर भेजने का प्रस्ताव पारित किया गया। तमिलनाडु की समिति भी स्वयंसेवक भेजने पर विचार कर रही है। अगर हमारी समिति भी एक निर्णय लेकर इस आंदोलन में योगदान देती है तो अच्छा रहेगा...”

 

महादेवभाई की डायरी: खंड 6, वर्ष: 1924:

पृष्ठ 186:       

               साबरमती, दिनांक: 11-9-1924

“प्रिय मित्र,

…दास्ताने और देवधर ने जुहू में बहुत बात की…जिसका मुझ पर प्रभाव पड़ा…उनके साथ हुई बातचीत से मुझे समझ आया कि सभी कार्यकर्ता अहिंसा और खादी के काम में विश्वास नहीं रखते हैं। श्री बापट का ही उदाहरण लीजिए। वे मुलशी पेटा सत्याग्रह के नेता हैं। मैंने सत्याग्रह पर उनके द्वारा लिखा हुआ पर्चा पढ़ा है…वे अहिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं…इन सभी मामलों में आंतरिक सुधार की ज़रुरत है…अगर हमारे व्यवहार में पवित्रता है तो उसका हमारे विरोध में खड़े लोगों पर जो असर होगा उसका हम अंदाज़ा नहीं लगा सकते…

आपका,

एम.के. गांधी”

 

महादेवभाई की डायरी: खंड-2, वर्ष सितंबर 1932-जनवरी 1933:

पृष्ठ-82: “शाम के समय, सेनापति बापट को एक तार भेजा गया।

(गांधीजी:) ‘अनशन करने का आपका उद्देश्य दिल छूने वाला है, लेकिन मैं चाहूंगा कि आप इन मामलों के मेरे जैसे विशेषज्ञ के विरोधी मत पर गौर करके अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। मुझे पूरा विश्वास है कि आपका यह अनशन धर्म के नज़रिए से उचित नहीं है। क्योंकि आप मेरे प्रति भावनाएं रखते हैं, इसलिए आपको मेरे साथ मृत्यु को प्राप्त नहीं होना चाहिए, बल्कि मेरे कार्य को आगे ले जाने के लिए जीवित रहना चाहिए। अगर सभी सहकर्मी मेरे साथ मृत्यु स्वीकार कर लेते हैं तो सोचिए इसका परिणाम क्या होगा। क्या यह अपराध नहीं होगा? कृपया मेरी बात माने। भगवान आपका भला करे।” (सेनापति बापट यह अनशन क्यों करना चाहते थे इसका ज़िक्र डायरी में नहीं किया गया है।)

(इसी समय के आसपास महात्मा गांधी ने के. केल्लपन को भी तार भेज कर अपना अनशन वापस लेने के लिए कहा था जो उस समय अछूत समझे जाने वाले व्यक्तियों/दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिए जाने के लिए आंदोलन कर रहे थे):

पृष्ठ 97: (महादेवभाई:) “बापू ने उन्हें एक लंबा तार भेजा, ‘...पूरी स्थिति को ध्यान में रखते हुए, मैं आपकी गलती को देख पा रहा हूँ। अनशन छोड़ कर तीन महीने का नोटिस दीजिए।’

(महादेवभाई :) “वल्लभभाई और मैं इससे काफी हैरान थे (गांधीजी द्वारा अनशन वापस लेने के बारे में केल्लपन को भेजे गए तार को लेकर)। मेरे मन मैं एक सवाल था कि यह (केल्लपन का अनशन) उनकी अंतरात्मा का विषय क्यों नहीं हो सकता? तब बापू ने कहा: ‘वो मुझसे पूछते हैं, मुझसे आशीर्वाद मांगते हैं, यह अपने आप में दर्शाता है कि यह उनकी अंतरात्मा का विषय नहीं है, लेकिन वो मेरे सुझाव के अनुसार कदम उठाते हैं। बापट मेरे खिलाफ थे, वो मेरे अनुशासन के अधीन नहीं थे, तो उन्हें कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है; लेकिन केल्लपन ने मेरे अनुशासन को स्वीकार किया है…’    

 

(मेरे द्वारा गुजराती से English में अनुवादित और English से हिन्दी में सिद्धार्थ जोशी द्वारा अनुवादित )

 

अंत

 

 

 



[1] बिजली पैदा करने के लिए, टाटा हाइड्रोलिक कंपनी पुणे के नज़दीक नीला और मुला नदी पर बांध बना रही थी जिसकी वजह से मुलशी के आसपास के गांव और खेत पानी में डूबने वाले थे। इसी वजह से वहां के लोगों ने श्री बापट और अन्य व्यक्तियों के नेतृत्व में सत्याग्रह किया। काम को करीब सात महीनों तक रोकना पड़ा। लेकिन दिसंबर 1921 में जब सत्याग्रह फिर से शुरू किया गया तो सरकार ने लोगों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें कठोर दंड दिया। इस सत्याग्रह के दौरान जेल भेजे जाने वाले आंदोलनकारियों को मुलशी सत्याग्रही के नाम से जाना जाता है। जेल में काम करने से इनकार करने के लिए उन पर 9 फरवरी 1923 को कोड़े बरसाए गए। (यह फुटनोट डायरी का ही हिस्सा हैं)   

[2] मुलशी पेटा सत्याग्रहियों को साबरमती जेल (इसे यरवदा जेल होना चाहिए) में 9-2-1923 को काम करने से इनकार करने के लिए कोड़ों से पीटा गया था; उन्हें यह समझाने के लिए कि वे काम करने से इनकार नहीं कर सकते हैं और उन्हें इसके लिए अनशन नहीं करना चाहिए, जेरामदास को गांधीजी के निर्देशों के अनुसार, जेल की अपनी कोठरी छोड़ कर जाना पड़ा। अपनी कोठरी छोड़ कर जाने के इस ‘अपराध’ के लिए जेरामदास को एक हफ्ते के एकांत कारावास की सज़ा दी गई।

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