Sunday, 15 October 2023

बांध और नदी के निचले इलाकों पर होने वाले उनके प्रभाव

 


हालही में तिशता नदी पर बनाए गए बांध के टूटने की और बांध के नीचे के इलाके मे तबाही की खबर ने, 2014 में  हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी पर लारजी जल विद्युत परियोजना के तहत बने बांध से अचानक पानी छोड़े जाने की वजह से हुई 24 युवा छात्रों की दुःखद मृत्यु ने, वर्ष 2005 में मध्य प्रदेश में नर्मदा के किनारे बसे धाराजी में घटी ऐसी ही एक दुर्घटना की याद एक बार फिर ताजा कर दी है। अगर आधिकारिक आंकड़ों की बात माने तो ऊपर बने नर्मदा सागर बांध से पानी छोड़े जाने की वजह से सत्तावन लोगों की मृत्यु हुई थी लेकिन गैर-आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस घटना में सौ से अधिक लोगों की जान गई है।   

हालांकि आकस्मिक रूप से होने वाली यह आपदाएं अपने आप में बहुत चिंताजनक हैं, लेकिन नदी के निचले इलाकों पर होने वाले बांध के कुछ ऐसे प्रभाव भी देखे जा सकते हैं जो स्थायी और काफी दूरगामी होतेहैं, और इन निचले इलाकों में बसने वाले लोगों के लिए गहरी समस्याओं को जन्म देते हैं। नदी के निचले इलाकों की पारिस्थितिकी और वहां बसे लोगों पर होने वाले बांधों के विपरीत प्रभावों को कई जन आंदोलनों ने रेखांकित किया है।

इन मुद्दों को प्रभावी रूप से उठाने वाला ऐसा ही एक आंदोलन, उत्तरी गुजरात में दांतीवाड़ा और सीपू बांधों के निचले इलाकों में वरिष्ठ गांधीवादी श्री चुनिभाई वैद्य के नेतृत्व में लड़ा गया। [दांतीवाड़ा बांध गुजरात के बनासकांठा जिले में बनास नदी पर बनाया गया है। सीपू नदी बनास नदी के दाहिने किनारे से जुड़ने वाली सहायक नदी है और सीपू बांध इसी पर बनाया गया है।] यह आंदोलन नदी के निचले इलाकों की पारिस्थितिकी और वहां बसे लोगों पर होने वाले बांधों के गंभीर परिणामों की ओर ध्यान खींचने वाले देश के के सबसे पहले संघर्षों में से एक था, लेकिन इसका बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।     

दांतीवाड़ा बांध - फोटो: नर्मदा, जल संसाधन, जल आपूर्ति और कल्पसर विभाग, गुजरात सरकार


इस संघर्ष की अगुवाई करने वाले संगठन, गुजरात लोकसमिति के एक महत्वपूण्र दस्तावेज़ के (मेरे द्वारा गुजराती से इंग्लिश मे अनुवाद किए जाने के बाद, इंग्लिश से हिन्दी में अनुवाद सिद्धार्थ जोशी ने किया हैं। ) कुछ अंश नीचे दिए गए हैं, जो बांधों के नदी के निचले इलाकों पर होने वाले प्रभावों और तटीय जल अधिकारों पर रोशनी डालेंगे:    

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गुजरात लोकसमिति

दिनांक: 18-9-1989

“जब गुजरात लोकसमिति और साथी संगठनों के एक प्रतिनिधिमंडल ने सोमवार दिनांक 18-9-1989 को मुख्यमंत्री श्री अमरसिंह चौधरी, जल संसाधन मंत्री श्री विजयदास महंत और अन्य अधिकारियों से मुलाकात की तो अन्य विषयों के साथ नीचे दिया गया नोट भी संलग्न किया गया था:

                                                           

विषय:

  1. दांतीवाड़ा बांध से पानी छोड़ा जाना
  2. सीपू बांध के निर्माण कार्य को रोका जाना

खुद मुख्यमंत्री ने भी कई बार यह स्वीकार किया है कि नदी के पानी का अधिकार सिर्फ गुजरात या देश के कानून का हिस्सा ही नहीं है बल्कि इसे अंतरराष्ट्रीय कानून में भी जगह दी गई है और इसके अनुसार नदी के निचले इलाकों में बसे लोगों के लिए भी पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए...पानी के बहाव को रोका नहीं जाना चाहिए ताकि पानी के साथ आने वाली गाद भी सितंबर के महीने तक पानी के साथ बहती रहे।

इस मुद्दे को विश्व बैंक के कार्य प्रबंधक... केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष...योजना आयोग के सदस्य…द्वारा भी स्वीकार किया गया।

चार दिन पहले, हम रात को करीब दस बजे राधनपुर तालुका के गुलाबपुरा गांव गए थे। वहां हमने रात को महिलाओं को अपने घरों से निकल कर एक मटका पानी भरने के लिए बाहर जाते हुए देखा, जिसे भरने में उन्हें 3-4 घंटों का समय लग रहा था…ऐसे भी गांव हैं जो ऐसे तालाबों का पानी पीते हैं जिनमें इंसानों और जानवरों का मल-मूत्र मिला हुआ होता है। ऐसे भी गांव हैं जो भारी/खारा पानी पीते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। और ऐसे गांव जिनमें पहले पानी की कोई भी समस्या नहीं थी, उन्हें भी अब स्त्रोत-रहित घोषित कर दिया गया है और पानी पहुंचाने के लिए बिछाए गए पाइप के ज़रिए उन्हें सप्ताह में 2-4 दिन भी पानी नहीं मिल पाता है। सिर्फ चार नलों से पानी भरने की कोशिश कर रही चार सौ महिलाओं का यह नज़ारा...बहुत आम है। 

हमारा दावा है कि इन सभी दिक्कतों की वजह दांतीवाड़ा [बांध] है। दांतीवाड़ा बांध के निर्माण के पहले यह मुश्किलें नहीं थी। इस बुरी हालत की जड़ दांतीवाड़ा बांध है।

  1. तटीय जल अधिकारों के नज़रिए से, दांतीवाड़ा के पानी पर पहला अधिकार नदी के निचले इलाकों में बसे लोगों का है। मुख्यमंत्री ने भी स्वीकार किया है कि नदी के पानी को सितंबर तक खुले तौर पर बहने देना चाहिए। पिछले पच्चीस सालों के अनुभव से यह साफ़ हो जाता है कि बांध बनाने वालों ने इसे गलती से इतना बड़ा बना दिया कि यह कभी भी पूरा नहीं भरेगा और नदी का पानी नदी के निचले इलाकों में रहने वालों लोगों तक कभी भी पहुंचने नहीं वाला है। यह देखते हुए कि नदी के पानी पर पहला अधिकार निचले इलाकों के लोगों का है, नदी के पानी को 530 फ़ीट की ऊंचाई पर छोड़ा जाना चाहिए। ऐसा करने पर, गाद भी पानी के साथ बह पाएगी और बांध में गाद के जमा होने की रफ़्तार भी धीमी हो पाएगी।
  2. दांतीवाड़ा की परियोजना रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि सीपू का पानी निचले इलाकों के लोगों तक बिना किसी रुकावट के पहुंच पाएगा। पूरी गंभीरता के साथ किए गए इस लिखित वादे की अवहेलना करते हुए अब सीपू बांध का निर्माण किया जा रहा है। यह अनैतिक है। 50 करोड़ खर्च हो जाने के बाद अब और 50 करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। सरकार सौ करोड़ पानी में बहाने और निचले इलाकों की बर्बादी को न्योता देने की इतनी जल्दी में क्यों है? सीपू बांध के निर्माण कार्य को रोकने के बारे में गंभीरता से विचार करना आज बहुत ज़रूरी है।
  3. यह दावा कि बांध के निचले इलाकों में 944 वर्ग मील का जलग्रह (कैचमेंट) क्षेत्र है गुमराह करने वाला तर्क है...इस साल भी नदी का बहाव सिर्फ 4-5 दिनों तक ही सीमित था…सभी देख सकते हैं कि आज भी नदी पूरी तरह से सूखी है।     
  4. …आपने कई बार यह कहा है कि बांध के पानी को छोड़ा जाएगा। दांतीवाड़ा की परियोजना रिपोर्ट में भी कहा गया है कि निचले इलाकों के इस्तेमाल के लिए बांध से पानी छोड़ा जाएगा। लेकिन इतने सालों में ऐसा एक बार भी नहीं किया गया…
  5. कांकरेज के किनारे बसे गांवों और दूर के गांवों में एक कहावत प्रचलित थी कि ‘...कीचड़ उठाओगे तो पानी पाओगे...’। 7-8-10 और 15 फीट की गहराई पर पानी मिल जाता था...इसलिए लोग हर खेत में एक कुआं रखना पसंद करते थे। ऐसे हज़ारों कुएं हुआ करते थे…जनता बैंक के अध्यक्ष के अनुसार…, करीब छह हज़ार कुंओं के निर्माण के लिए सीमेंट के ढांचों का इस्तेमाल किया गया था। आज इनमें से एक भी कुएं में पानी नहीं है। करीब 10-15 हज़ार खेतों में आज इन कुओं से सिंचाई के लिए कोई पानी नहीं है। कांकरेज में करोड़ों की कीमत वाली आलू की फसल हुआ करती थी, हज़ारों की तादाद में बाहर से आने वाले खेत मज़दूरों को यहां काम मिला करता था, आलू की खेती के लिए नदी तल की ज़मीन की नीलामी की जाती थी और इससे किसान लाखों की कमाई करते थे। दांतीवाड़ा बांध के बनने के बाद यह सब खत्म हो गया। जहां पानी  7-8-10-15 फ़ीट की गहराई पर ही मिल जाता था वहां भूजल का स्तर अब 400-500 से 800-900 फ़ीट तक चला गया है। इसके लिए बिजली का इस्तेमाल आज एक बड़ा मुद्दा बन गया है। दांतीवाड़ा के निर्माण से पहले यह समस्या बिलकुल भी नहीं थी। इतना पैसा खर्च करने के बाद हमने आखिर हासिल क्या किया, यह आज एक बड़ा मुद्दा है। उम्ब्री-शिहोरी जल पाइपलाइन के लिए नदी के तल में सात कुएं खोदे गए…इसकी वजह से भूजल स्तर गिरता जा रहा है। पहले पानी 8 मीटर की गहराई पर उपलब्ध था और आज 35 मीटर की गहराई तक जा चुका है। और स्थिति तब है जब अभी तक सीपू बांध नहीं बना है और नदी अब भी बह रही है। अगर सीपू बांध बनता है तो यह पाइपलाइन भी सूखी पड़ जाएगी। और फिर हमें गांवों तक टैंकरों के ज़रिए पानी पहुंचाने के लिए भागदौड़ करनी पड़ेगी। नदी को छीन लेने और पाइपलाइन को सुखा देने के बाद, अब हम तेज़ी से ऐसी स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं जहां टैंकरों के ज़रिए पानी पहुंचाने की नौबत आने वाली है।
  6. दांतीवाड़ा के नीचे के इलाकों में करीब दो लाख एकड़ ज़मीनों में गाद जमी हुई है…अगर सरकार चाहे तो इसकी जांच करने के लिए एक समिति का गठन कर सकती है…गुजरात लोकसमिति और साथी संगठनों के प्रतिनिधियों को भी इस समिति में जगह दी जानी चाहिए…
  7. हम यहां एक और महत्वपूर्ण मुद्दा उठाना चाहेंगे - दांतीवाड़ा बांध के निर्माण पर, उसके रखरखाव पर…निवेश की गई पूंजी पर चुकाए गए ब्याज पर...कर्मचारियों के वेतन, इत्यादि पर किए गए खर्च से होने वाली आय कितनी है? अगर आप इस खर्च के साथ होने वाली आय की तुलना करेंगे...तो आप राष्ट्रीय उत्पादन को होने वाले नुकसान का अंदाजा लगा पाएंगे...       
  8. हमने यहां जो सुझाव दिए हैं वो रचनात्मक हैं और सरकार के लिए उपयोगी साबित होंगे...

 

हस्ताक्षर:

राजू पुरोहित,

संयोजक,

बनासकांठा जिला लोकसमिति

इलाबेन पाठक

सचिव,

अहमदाबाद महिला कार्रवाई समूह 

चुनिभाई वैद्य

अध्यक्ष,

गुजरात लोकसमिति

 

-अंत-


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