कार्यालयों की भी होती
है अपनी-अपनी कहानी
नर्मदा
बचाओ आंदोलन और उसके कार्यालय
राज्य की सत्ता हमेशा उन जन आंदोलनों को कुचलने की कोशिश करती है जो सामूहिक
ताकत -सामूहिक निश्चय, सामूहिक दृढ़ता, सामूहिक आवाज़ और सामूहिक प्रतिरोध - के दम पर
खड़े होते हैं। जन आंदोलनों और सामूहिक प्रतिरोध को न तो विदेशी पैसे की ज़रुरत होती
है न ही हथियारों की। आज़ाद भारत के सबसे सशक्त जनांदोलनों में से एक, नर्मदा बचाओ आंदोलन,
साधारण कार्यालयों से चलाया जाता रहा है। यह कार्यालय आंदोलन के कार्यकर्ताओं और सदस्यों
के लिए रहने के लिए घरों का काम भी करते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सभी कार्यालय बहुत
ही साधारण थे, कुछ में नल के पानी की व्यवस्था नहीं थी, आदिवासी इलाकों में स्थित कार्यालयों
में बिजली की सुविधा नहीं थी। कोई पलंग या बिछौना या कुर्सी या मेज भी नहीं। कार्यकर्ता दरियों पर सोते थे और साधारण
सा खाना बनाकर खाते थे। काफी समय के बाद ही तीन कार्यालयों में पुराने कम्प्यूटरों
और कामचलाऊ मेज़ों की व्यवस्था की गई।
नर्मदा बचाओ आंदोलन दमनकारी राज्य द्वारा नर्मदा नदी पर जबरन बनाए जा रहे विनाशकारी
बांध के खिलाफ अपने अहिंसक संघर्ष का संचालन इन बहुत ही मामूली सुविधा वाले कार्यालयों
से ही करता रहा। इन्हीं कार्यालयों से नर्मदा बचाओ आंदोलन ने ताकतवर अंतर्राष्ट्रीय
संस्थाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी और विश्व बैंक को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। इनमें
से कुछ कार्यालय दशकों के लंबे संघर्ष के बाद आज भी सक्रिय हैं और इनमें से जो सक्रिय
नहीं भी हैं उनकी कहानियां आज भी ज़िंदा हैं।
नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति का पहला कार्यालय नर्मदा के किनारे नहीं बल्कि
मध्य प्रदेश के मनावर जिले के तवलई गांव में स्थित गांधी आश्रम/स्कूल में शुरू हुआ
था। नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे विशाल बांधों को चुनौती देने के उद्देश्य से शुरू किए
गए इस कार्यालय की स्थापना वरिष्ठ गांधीवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी,
जिसमें स्वर्गीय श्री काशिनाथजी त्रिवेदी, स्वर्गीय श्री बैजनाथ महोदय, श्री प्रभाकर
मांडलिकजी जैसे अनुभवी लोग शामिल थे। इस मुहिम में उनका साथ देने वालों में स्थानीय
किसान और स्वर्गीय श्री फुलचंदभाई पटेल (जिन्होंने तवलई आश्रम के लिए अपनी ज़मीन दान
में दी थी), स्वर्गीय श्री शोभारामभाई जाट, स्वर्गीय श्री अम्बारामभाई मुकाती, स्वर्गीय
श्री सूरजमलजी लुंकड और कई अन्य सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल थे।
तवलई (मध्य प्रदेश) में स्थित नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति का कार्यालय (फोटो श्रेय - अज्ञात) |
बाद में, जैसे-जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन का विस्तार हुआ और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं
की संख्या बढ़ी, बड़वानी (मध्य प्रदेश) में नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति के उप-कार्यालय
की स्थापना की गई। हालांकि आगे चलकर यह नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुख्य कार्यालय बन गया
लेकिन तब भी इसे नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति उप-कार्यालय ही बुलाया जाता रहा। नर्मदा
बचाओ आंदोलन को यह कार्यालय सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में आने वाले 245
गांवों में से एक गांव, बागुड़ के एक किसान, श्री बद्रीभाई जाट ने दिया था। नर्मदा बचाओ
आंदोलन ने कई वर्षों तक इस कार्यालय का इस्तेमाल किया लेकिन बद्रीभाई ने इसके लिए कभी
भी कोई किराया नहीं लिया।
फोटो में (बालकनी में) नर्मदा घाटी नवनिर्माण समिति और नर्मदा बचाओ आंदोलन के संस्थापकों में से एक, बागुड़ गांव के श्री शोभारामभाई जाट। फोटो श्रेय: अज्ञात |
बाद में, जब ऊपर दिखाए गए कार्यालय की मरम्मत करने की ज़रुरत पड़ी तो नर्मदा के
वरिष्ठ सदस्य और बड़वानी के सम्मानीय निवासी स्वर्गीय श्री महाजनसाब वकील ने कार्यालय
के रूप में इस्तेमाल के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन को अपनी घर की ईमारत उपलब्ध कराई। इसी
इमारत से नर्मदा बचाओ आंदोलन का दो दशकों तक संचालन किया गया।
नर्मदा बचाओ आंदोलन का बड़वानी कार्यालय जिसमें वरिष्ठ कार्यकर्ता जो अथिअली और चित्तरूपा पलित (सिल्वी) को देखा जा सकता है। पीठ करके बैठे हुए व्यक्ति संभवतः सर्वोदय प्रेस सेवा (इंदौर) के डॉ. सम्यक हैं। |
जब स्वर्गीय श्री बाबा आमटे ने आनंदवन छोड़ कर बड़वानी के नज़दीक नर्मदा नदी के
किनारे बसे गांव, छोटा कासरवाद में बसने का फैसला किया तो बड़वानी शहर के लोगों के योगदान
से नर्मदा घटी के लोगों ने उनके लिए एक छोटे से घर का निर्माण किया। इस तीन कमरे के
घर का नाम निजबल रखा गया, और बाबा ने अपनी
पत्नी साधना ताई के साथ इस घर में करीब एक दशक का लंबा समय गुज़ारा। अपनी और साधना ताई
की बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के कारण बाबा के आनंदवन लौट जाने के बाद, उनके इस
घर की देखरेख, जिसे बाबा और उनकी टीम ने तब तक पेड़ लगाने के ज़रिए हरा-भरा बना दिया
था, नर्मदा बचाओ आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता रहमत और स्वर्गीय श्री गंगारामभाई यादव
ने की। लेकिन, यह सरकार को सहन नहीं हुआ और उसने लोगों के विरोध के बावजूद मकान को
जबरन सील बंद कर दिया। निजबल, जो एक समय
नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर परियोजना और बड़े बांधों के खिलाफ संघर्ष का केंद्र हुआ
करता था, आज खस्ता हालत में है।
महाराष्ट्र में सरदार सरोवर परियोजना के पानी में डूबने वाले पहले आदिवासी गांव, मणिबेली में स्थित नर्मदा बचाओ आंदोलन का प्रसिद्ध कार्यालय, नर्मदा आई, 1990 के दशक के दौरान कई वर्षों तक संघर्ष का केंद्र बना रहा। इसी कार्यालय में विश्व बैंक द्वारा गठित मोर्स आयोग की नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ पहली बैठक हुई। मणिबेली का जन संघर्ष पूरी दुनिया में इतना मशहूर हुआ कि इसके चलते, जब दुनिया के कई संगठनों ने विश्व बैंक द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता पर रोक लगाने का आह्वान किया तो इसे ‘मणिबेली घोषणा’ कहा गया। मणिबेली घोषणा की वजह से ही बांधों पर विश्व आयोग का गठन किया गया। देखें: http://pdf.wri.org/wcd_chapter_3.pdf, मणिबेली के संघर्ष पर अधिक जानकारी के लिए देखें: http://www.frontline.in/static/html/fl2701/stories/19930813112.htm
मणिबेली में नर्मदा आई, फोटो श्रेय: अज्ञात |
महाराष्ट्र सरकार द्वारा पुलिस की मदद से नर्मदा आई को निस्तेनाबूत करने के बाद इसे आदिवासी समुदायों में लाहा नाम से प्रचलित सामूहिक श्रम की परंपरा की मदद से फिर से खड़ा किया गया।
नर्मदा आई के सामने खड़े
नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता शांतिलाल यादव और रामा अत्या |
नर्मदा आई का कामकाज स्वर्गीय श्री गंगारामभाई यादव (डूब-प्रभावित गांव छोटा बड़दा के
निवासी गंगारामभाई को ऊपर तस्वीर में बीच में देखा जा सकता है) के बिना संभव नहीं होता
जो इस कार्यालय की देखरेख और हर महीने आने वाले सैंकड़ों मेहमानों की देखभाल में अपन
पूरा समय लगा देते थे। इसमें उनका सहयोग देने वाले अन्य कार्यकर्ता भी थे। ऊपर की तस्वीर
में दाईं ओर खड़े गेंदालाल मुजाल्दे खड़े हैं - आंदोलन के कई पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं
में से एक, जो डूब-प्रभावित गांव कुंडिया से थे। तस्वीर में सामने की ओर लायला मेहता
को बैठे हुए देखा जा सकता है जो नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ने वाले कई अंतर्राष्ट्रीय
छात्रों और शोधकर्ताओं में से एक थी। फिलहाल वे ब्रिटेन के ससेक्स विश्वविद्यालय के
आईडीएस संस्थान में एक रिसर्च फेलो हैं। तस्वीर में दिखाई देने वाले अन्य व्यक्ति नर्मदा
बचाओ आंदोलन के सदस्य और नर्मदा घाटी के परियोजना-प्रभावित व्यक्ति हैं।
बिना किसी पुनर्वास के सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई को बढ़ाए जाने से आने वाली
गैर-कानूनी डूब के कारण नब्बे के दशक के मध्य में नर्मदा आई भी जलमग्न हो गया।
नर्मदा बचाओ आंदोलन का बड़ोदा कार्यालय भी संघर्षों के प्रमुख केंद्रों में से
एक था। शुरुआत में वड़ोदरा कामगार संगठन ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को अपनी जगह दी और कई
सालों तक आंदोलन का दफ्तर वड़ोदरा कामगार संगठन के कार्यालय से चलाया गया। लेकिन जैसे-जैसे
गुजरात में आंदोलन बढ़ा और फैला और इसके साथ गुजरात में काम करने वाले पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं
की संख्या भी बढ़ने लगी तो कार्यालय के लिए अपनी खुद की (किराये की) जगह ली गई (नीचे
देखें)। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि डूब-प्रभावित गांवों से कई लोग अपने इलाज के
लिए बड़ोदा कार्यालय आया करते थे। यही नहीं, बड़ोदा कार्यालय नर्मदा बचाओ आंदोलन को बाकी
दुनिया से जोड़ने वाली कड़ी बन गया।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के बड़ोदा कार्यालय में आंदोलन के कार्यकर्ता अलोक अग्रवाल और किरण। फोटो श्रेय: अज्ञात |
भाजपा और कांग्रेस पार्टी के गुंडों द्वारा इस कार्यालय पर हमला करने और इसे
तहस-नहस कर देने के बाद नर्मदा बचाओ आंदोलन को मजबूर होकर अपना खुद का कार्यालय शुरू
करना पड़ा क्योंकि सरकार और गुंडों के डर से कोई भी मकान-मालिक आंदोलन को कार्यालय के
लिए अपना मकान किराये पर देने के लिए तैयार नहीं था। हालांकि, वड़ोदरा कामगार संगठन,
स्वाश्रय और अन्य समर्थकों के कार्यालय आंदोलन के लिए चौबीसों घंटे खुले थे। रमेशभाई
कचौलिया, विजयाताई चौहान, स्वर्गीय श्री कमलाकर धर्माधिकारी और स्वर्गीय श्री के. के.
ओझा जैसे आंदोलन के समर्थकों के आर्थिक योगदान से बड़ौदा में नर्मदा बचाओ आंदोलन के
लिए एक कार्यालय खरीदा गया (नीचे देखें):
नर्मदा बचाओ आंदोलन के बड़ोदा कार्यालय में स्वर्गीय संजय सांगवाई और दीपक यादव |
सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित केवड़िया कॉलोनी में नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय आंदोलन के वरिष्ठ आदिवासी नेता मूलजीभाई तड़वी के घर से चलाया जाता था। मूलजीभाई की ज़मीनें गुजरात में बनाई गई केवड़िया कॉलोनी के निर्माण में चली गई थी। आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता जैसे स्वर्गीय श्री तेताभाई वसावे, इत्यादि यहीं रहा करते थे और यहीं से काम करते थे। बाद में, नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय कोठी नाम के आदिवासी गांव के निवासी और आंदोलन की तेज़तर्रार नेता, स्वर्गीय बलिबेन तड़वी के घर से चलाया गया। बलिबेन की ज़मीनें भी परियोजना के लिए बनाई गई कॉलोनी में चली गई थी। गुजरात में कई सालों तक आंदोलन का काम इन्हीं मिट्टी और खपरैल से बने मकानों से किया गया।
बलिबेन की मृत्यु के बाद, नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय वाघड़िया गांव में
आंदोलन के वरिष्ठ नेता प्रभुभाई तड़वी और कपिलाबेन तड़वी के घर से चलाया गया। वाघड़िया
भी बांध के नज़दीक स्थित परियोजना की कॉलोनी से प्रभावित गांव था।
उसके बाद, नमर्दा बचाओ आंदोलन के कार्यालय मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के डूब-प्रभावित
आदिवासी गांवों क्रमशः जालसिंधी और डोमखेड़ी से संचालित किया गया। इस कार्यालयों को
लोगों ने ही लाहा की परंपरा के ज़रिए खड़ा
किया था। सरदार सरोवर परियोजना की वजह से होने वाली गैर-कानूनी डूब में यह कार्यालय
भी जलमग्न हो गए।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता क्लिफ्टन डी’रोज़ारीयो और सम्भवतः स्वर्गीय शोभा वाघ |
क्योंकि नर्मदा बचाओ आंदोलन के मामला की सुनवाई कई वर्षों तक दिल्ली में स्थित
सर्वोच्च न्यायालय में चलती रही, इसकी वजह से नब्बे के दशक में कई सालों के दौरान दिल्ली
फोरम ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं को अपने दफ्तर में जगह दी, जो वहां रहते
थे और वहीं से अपना काम करते थे। यह सिलसिला तब तक चला जब तक सर्वोच्च न्यायालय ने
बांध के निर्माण कार्य को हरी झंडी दिखाते हुए अपना फैसला नहीं सुना दिया।
फोटो श्रेय: अज्ञात |
ऊपर दी गई तस्वीर दिल्ली फोरम के कार्यालय की है जहां से दिल्ली में नर्मदा बचाओ आंदोलन का काम किया जाता था। इसमें अशोकभाई शर्मा को देखा जा सकता है जो एक बेहतरीन कार्यकर्ता थे और देश भर के जन आंदोलन जब सत्ता के दरवाज़े खटखटाने राजधानी दिल्ली आते थे तो अशोकभाई हमेशा उनके समर्थन और सहयोग में मौजूद रहते थे।
नब्बे के दशक के लंबे समय के दौरान नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुंबई में भी एक कार्यालय
था जो आंदोलन के समर्थकों द्वारा दी गई जगह से चलाया जाता था और जिसका कामकाज वरिष्ठ
पूर्णकालिक कार्यकर्ता देखा करते थे जिनमें नारीवादी लेखक और शोधकर्ता लता प्रमा भी
शामिल थी।
नर्मदा बचाओ आंदोलन का सबसे लंबे समय तक सक्रिय रहने वाला कार्यालय धडगाव, महाराष्ट्र
में स्थित था। दुर्भाग्य से, इस कार्यालय की तस्वीर मेरे संग्रह में मौजूद नहीं है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन का कार्यालय फिलहाल बड़वानी में है जो एक स्थानीय निवासी द्वारा
दान में दी गई ज़मीन पर खड़ा किया गया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा नदी और बर्गी
इलाके में बनाए जा रहे अन्य बड़े बांधों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए मंडलेश्वर और खंडवा
में भी कुछ छोटे कार्यालयों की स्थापना की थी। लेकिन इनकी भी कोई तस्वीर मेरे पास नहीं
है। यहां जिन कार्यालयों का ज़िक्र किया गया है उसके अलावा भी कई कार्यालय शुरू किए
गए थे।
हाशिए के शोषित समुदायों के आंदोलनों की ताकत सच्चाई, दृढ़ निश्चय और प्रतिबद्धता
पर टिके उनके सामूहिक प्रतिरोध से आती है। हथियार, जेल और बेहिसाब संसाधन (चाहे घरेलू
संसाधन हों या कॉर्पोरेट और अंतर्राष्ट्रीय संसाधन) तो सत्ता के पास होते हैं, जिनके
ज़रिए वो न्याय और समता के लिए लड़े जा रहे जन सघर्षों और प्रतिरोध को कुचलने की कोशिश
करती है। इसे जितनी जल्दी स्वीकार कर लिया जाएगा, उतना बेहतर होगा।
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