भारत में नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध के खिलाफ उभरने वाला नर्मदा बचाओ आंदोलन
आज दुनिया का सबसे जाना-माना बांध-विरोधी आंदोलन बन चुका है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के
इतने प्रसिद्ध होने का एक कारण उसके द्वारा अपनाई गई अनूठी रणनीतियां भी हैं, जैसे
- ‘डूबेंगे पर हटेंगे नहीं’, ‘जल समर्पण’, इत्यादि।
यह बड़ी दिलचस्प बात है कि महाराष्ट्र के पुणे जिले के मुलशी बांध के खिलाफ करीब
सौ साल पहले खड़े हुए आंदोलन के दौरान भी इसी
तरह की अलग-अलग रणनीतियों का इस्तेमाल किया गया था। राजेंद्र वोहरा की किताब “मुलशी
सत्याग्रह” के कुछ अंश जो इन रणनीतियों पर कुछ रोशनी डालते हैं:
अपनी ज़मीन छोड़ के न जाने का निर्णय:
“... बांध की नींव का काम चालू था…[डूब क्षेत्र में आने
वाले लोगों के] एक हिस्से को लगता था कि धमकियों के ज़रिए जितना ज़्यादा हो सके उतना
मुआवज़ा हासिल करना अच्छा रहेगा…और बाकी हिस्सा कोई भी मुआवज़ा नहीं चाहता था और अंत
तक लड़ने के पक्ष में था…इस तरह के दो हिस्से धीरे-धीरे उभर रहे थे। दूसरे हिस्से का
नारा था ‘जीवन या ज़मीन’...
बांध स्थल पर कब्ज़ा करना:
“मुला नदी की उत्तरी दिशा में कुछ दूरी पर एक हज़ार से दो हज़ार सत्याग्रहियों
के लिए एक तंबू लगाया गया था। इस तंबू के ऊपर महाराष्ट्र का केसरी झंडा फहराया गया
था…सत्याग्रह की योजना पहले से ही बनाई गई थी। सत्याग्रह कैसा होना चाहिए, इसमें किसे
भाग लेना चाहिए, और इसका आयोजन कहां किया जाना चाहिए, यह सब पहले से सुनियोजित था…भुस्कुटे,
सेनापति बापट और रानाडे, सत्याग्रहियों के अलग-अलग जत्थों का नेतृत्व कर रहे थे…नदी
के संगम पर बांध की नींव डालने का काम चल रहा था। सत्याग्रह मंडल के अध्यक्ष, करंदीकर
वहां पहुंचे। सूर्योदय से थोड़ी ही देर पहले, मावल के निवासियों और स्वयंसेवकों ने नदी
तल के उस क्षेत्र को घेर लिया जहां नींव के लिए खुदाई का काम चल रहा था…कंपनी के अधिकारयों
ने मज़दूरों को काम शुरू करने का आदेश दिया। मज़दूर निर्माण कार्य के लिए अपने साथ पत्थर
और चुना ले कर आए थे लेकिन कहीं भी पत्थर बिछा पाना संभव नहीं था, क्योंकि पूरी जगह
मावल के निवासियों से भरी हुई थी…
निर्माण सामग्री को बांध
स्थल तक पहुंचने से रोकना:
“अलग-अलग जगहों पर टाटा कंपनी के काम को रोकने के लिए
सत्याग्रह शुरू करने का निर्णय लिया गया। निर्माण सामग्री को कंपनी तक पहुंचने
से रोकने की कोशिश करने का फैसला किया गया…
“टाटा कंपनी ने छह महीनों के लिए बांध का कार्य
रोक दिया। लेकिन बांध के काम के लिए पौद और मुलशी के बीच रेल के ज़रिए परिवहन शुरू किया
जाना था…शेरगांव के लोगों ने अपनी ज़मीनों पर रेलवे लाइन बिछाए जाने का विरोध किया...इसलिए
कंपनी ने रेलवे लाइन बिछाने का काम सार्वजनिक ज़मीनों पर ही शुरू कर दिया...इसके समाधान
के रूप में, बापट ने चिंचवाड़ के पास की रेलवे लाइन को उखाड़ने का फैसला किया...उन्होंने
शेरगांव, पौद, इत्यदि जैसे गावों के वरिष्ठ लोगों को इसके लिए तैयार किया और कंपनी
और जिला अधिकारीयों को नोटिस भेजा कि अगर रेलवे लाइन बिछाने का काम रोका नहीं गया तो
पौद और मुलशी के बीच किसी भी जगह की रेलवे लाइन को उखाड़ दिया जाएगा...15 जून को करीब
20-30 किसान चिंचवाड़ और मुलशी को जोड़ने वाली रेलवे लाइन पर सत्याग्रह के लिए बैठ गए…और
75 मज़दूरों को बुलाकर इस सत्याग्रह को जबरन हटाया गया…जब ट्रैन शुरू हुई, तो कई सत्याग्रहियों
ने ट्रैन के पहियों के नीचे लेटने की कोशिश की, लेकिन उन्हें भी जबरन वहां से हटा दिया
गया। इसके बाद ही पत्थर बाज़ी शुरू हो गई जिसमें 5-6 मज़दूरों को चोट आई…
धारा 144 का उल्लंघन:
“सत्याग्रह 1 मई को शुरू हुआ…केसरी (अखबार) का अनुमान था कि मावल के करीब 500 लोग और 250 स्वयंसेवक इकट्ठा
हुए थे…सेनापति बापट सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहे थे…मज़दूरों ने क्षेत्र के आस-पास
घेरा बना कर काम करना शुरू किया...जब सत्याग्रहियों ने अंदर घुसने के लिए घेरे को तोड़ा
तो मज़दूरों ने उन्हें पीटना शुरू कर दिया, और साथ में ‘कोल्हापुर महाराज की जय’ जैसे
नारे भी लगाए...अगले दिन कंपनी के गुंडों ने स्वयंसेवकों को बुरी तरह से पीटा। मावल
की महिलाओं का अपमान किया गया…उन्हें उनके बालों से पकड़ कर घसीटा गया, उन पर कीचड़ फेंका
गया…दोपहर के समय करीब 100 पुरुषों और महिलाओं ने ‘शिवजी महाराज की जय’ के नारे लगाए
और सत्याग्रह स्थल की ओर कूच किया...उनमें से कई सत्याग्रहियों को मज़दूरों द्वारा इतनी
बुरी तरह से पीटा गया कि उनमें से कुछ बेहोश हो गए…बांध की आवासीय कॉलोनी में ही न्यायलय
की स्थापना की गई जहां धारा 144 का उल्लंघन करने के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों के खिलाफ
मुकदमों की सुनवाई की गई…
जलसमर्पण/जलसमाधि:
“जब सेनापति को जेल से रिहा किया गया, तब तक मुलशी परिषद द्वारा तय की गई तीन साल की समय सीमा पूरी हो चुकी थी;
बल्कि, दी गई समय सीमा से छह महीने ज़्यादा हो चुके थे। इसलिए समसत्यग्रह की शर्तें
अब मान्य नहीं थी। उन्होंने (सेनापति बापट) ने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेते हुए 6 नवंबर
1924 को ‘मुलशी का अल्पविराम’ नाम का एक पर्चा प्रकाशित किया। विषय पर पूरी तरह से
सोच-विचार करने के बाद उन्होंने ‘मुलशी का पूर्ण विराम’ नाम का एक और पर्चा प्रकाशित
किया। उन्होंने कहा कि अगले दिन से वे मुलशी पेटा में रहना शुरू करेंगे और जब उस क्षेत्र
के मुख्य आराध्य देवता भगवान ज्योतिरूपेश्वर जल समाधि लेने वाले होंगे तो वे भी उनके
साथ समाधि ले लेंगे...इस पर्चे में उन्होंने पवित्र सत्याग्रह की शपथ ली जिसमें उन्होंने हिंसा को दूसरे दर्जे का स्थान
दिया...
हिंसक संघर्ष:
“इस तरह से, हालांकि साढ़े तीन साल चलने वाला सत्याग्रह तो ख़त्म हो चुका था, लेकिन सेनापति
के अनुसार, उस पर पूर्ण विराम लगाना अब भी बाकी था और यह उनके पवित्र सत्याग्रह से
लगने वाला था…सत्याग्रह मंडल को भंग किया जा चुका था, यानि सामूहिक सत्याग्रह, अहिंसक
सत्याग्रह अब खत्म हो चुका था। सेनापति ने अपने घर पर ही एक नया सत्याग्रह कार्यालय
खोला और स्वयंसेवकों के लिए आह्वान किया। यह अपील हिंसक संघर्ष के लिए जारी की गई थी।
इसके जवाब में उन्हें मिलने वाली प्रतिक्रिया बहुत अच्छी नहीं थी। सिर्फ पांच स्वयंसेवक
सामने आए…भुस्कुटे को सेनापति के पवित्र सत्याग्रह में यकीन नहीं था…बलवंत गोरे ने
इससे पहले समसत्यग्रह में हिस्सा लिया था और उन्हें इसके लिए सज़ा भी दी गई थी…मुलशी
के ‘पूर्ण विराम’ के लिए उन्होंने हैदराबाद से एक तलवार और पिस्तौल खरीदी...आत्माराम
मोदक 1921-22 में पुणे में आए थे और उन्होंने मुलशी सत्याग्रह में हिस्सा लिया था…
उन्हें सेनापति के सशस्त्र सत्याग्रह में आस्था थी…
“सत्याग्रह की तारीख 9 दिसंबर तय की गई। उस दिन,
सुबह, रेलगाड़ी को रोकने के लिए रेलवे लाइन पर पत्थर बिछाए गए। कुछ समय के बाद चिंचवाड़
से मज़दूरों को लाने वाली ट्रैन आई…जब ट्रैन रुकी तो पत्थर हटाने के लिए मज़दूर नीचे
उतरे और सत्याग्रहियों ने उन पर तलवार से वार करके उन्हें घायल कर दिया और सेनापति
ने ट्रैन चालक के पैर में गोली मार दी…इसके बाद, जैसा कि पहले ही तय कर लिया गया था,
सेनापति...और उनके चार साथियों ने पौद पुलिस थाने में आत्मसमर्पण कर दिया...उन्हें
जांच के दौरान छह महीने जेल में रखा गया…9 फ़रवरी को बापट का बयान दर्ज किया गया। इसमें
उन्होंने समसत्यग्रह और पवित्र सत्याग्रह के बीच का फर्क समझाया और बताया कि इस सत्याग्रह
का मुख्य पहलू सिर्फ शरीर को चोट पहुंचाना था, जान लेना नहीं...
“मार्च के आखिरी हफ्ते में, मामले की सुनवाई सत्र
न्यायाधीश डनलॉप के सामने शुरू की हुई जो 28 मार्च तक चली। बापट ने यह स्पष्ट किया
कि उनकी मंशा किसी की जान लेने की नहीं थी। ‘अगर मैं जान लेना चाहता, तो मैंने एडिनबरो
में सैन्य प्रशिक्षण लिया है, मैं ऐसा बहुत आसानी से कर सकता था...न्यायपीठ ने अपने
निर्णय में कहा कि सत्याग्रहियों पर सिर्फ हथियार रखने का आरोप सिद्ध हुआ है…उन्हें
बाकी सभी आरोपों से बरी किया जाता है। लेकिन न्यायाधीश ने इस निर्णय को स्वीकार करने
से इनकार कर दिया और इस मामले के दस्तावेज़ उच्च न्यायलय को भेज दिए गए। सेनापति बापट
के वकील एस. आर. गोखले थे। गोखले ने न्यायमूर्ति मिर्ज़ा और न्यायमूर्ति पर्सिवल को
पवित्र सत्याग्रह के मुख्य पहलुओं के बारे में बताया। पवित्र सत्याग्रह का मुख्य उद्देश्य
सत्य और कर्तव्य है…इसके दो पहलू हैं, एक शरीर को दी जाने वाली सजा और दूसरा, मौत की
सजा। बापट ने पहले पहलू को स्वीकारा। मुलशी सत्याग्रह के पीछे कोई राजनीतिक मकसद नहीं
है। टाटा कंपनी इस क्षेत्र को डूबना चाहती है। मावल के हर एक निवासी का इस इलाके से
गहरा रिश्ता है। जिस तरह से हर अँगरेज़ ट्राफलगर स्क्वायर पर बनी नेल्सन की प्रतिमा
से जुड़ाव महसूस करता है उसी तरह महाराष्ट का हर व्यक्ति इस इलाके से जुड़ा हुआ महसूस
करता है। इन तर्कों का अदालत पर कोई असर नहीं हुआ…
“अदालत ने अपना फैसला 12 जून को सुनाया। सेनापति
को सात साल की सजा सुनाई गई, गोर को पांच साल; भाम्भले, मोदक और कुकड़े को तीन और देव
को एक साल के कठोर कारावास की सज़ा दी गई…
((मेरे द्वारा गुजराती से English में अनुवादित और English से हिन्दी में सिद्धार्थ जोशी द्वारा
अनुवादित )
No comments:
Post a Comment