महिलाओं ने भारत के कई आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन अक्सर
उनके योगदान को वो स्थान नहीं दिया जाता जिसके वो हकदार हैं। महाराष्ट्र के पुणे जिले
में टाटा कंपनी द्वारा बनाए जा रहे मुलशी बांध के विरोध में वर्ष 1921 में खड़ा हुआ
आंदोलन देश का पहला बांध-विरोधी आंदोलन था। राजेंद्र वोरा की पुस्तक, ‘मुलशी सत्याग्रह’
के नीचे दिए गए अनुवादित अंश इस आंदोलन में महिलाओं के योगदान को उजागर करते हैं:
“...बुधवार, 20 अप्रैल को सत्याग्रह फिर से शुरू होने वाला था। इसलिए सत्याग्रही मंगलवार
की शाम ही मावल में इकट्ठा हो गए…बुधवार की सुबह सत्याग्रह स्थल पर पांच सौ महिलाएं
एकत्रित हुई…संदर्भ: केसरी: 26 अप्रैल 1921।
“...टाटा कंपनी का काम रोकने के लिए, अलग-अलग जगहों
पर सत्याग्रह किया जाना था…निर्माण सामग्री को कंपनी तक पहुंचने से रोकने का निर्णय
लिया गया…भुस्कुटे (आंदोलन के एक नेता) ने अपील जारी की कि जिस तरह इंग्लैंड के युवाओं
ने विश्व युद्ध में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, उसी तरह महाराष्ट्र के युवाओं को भी इस अहिंसक
आंदोलन में भाग लेने के लिए सामने आना चाहिए...कार्यक्रम के अंत में कई लोगों ने स्वयंसेवक
बनने की इच्छा ज़ाहिर की। एक महिला ने [आंदोलन की] सहायता के लिए अपनी सोने की चूड़ियां
दान में दे दी…संदर्भ: गृह विभाग फाइल संख्या 555/1921…
“महिलाओं की सहभागिता: इस अभियान का एक और महत्वपूर्ण पहलू था इसमें महिलाओं
की सहभागिता। 24 अप्रैल को आयोजित की गई जनसभा में मावल की महिलाओं ने आश्वासन दिया
था कि ‘हम इस आंदोलन में पीछे नहीं रहेंगे...जाईबाई भोइने ने नेतृत्व संभालते हुए बाकी
महिलाओं के साथ आंदोलन में हिस्सा लिया। उनकी मज़दूरों के साथ झड़प हो गई...अगले दिन
भी महिलाओं ने सत्याग्रह में भाग लिया…दो दिनों के बाद जाईबाई को गिरफ्तार कर लिया
गया। उन्हें तीन महीने के कठोर परिश्रम की सज़ा दी गई। इसके बावजूद, महिलाओं ने आंदोलन
में भाग लेना जारी रखा।
“…अनशन के ख़त्म होने के बाद भुस्कुटे ने संगठन में नया जोश और उत्साह भरने की
कोशिश की। सत्याग्रह की तारीख 22 जनवरी 1923 तय की गई। लेकिन, सरकार ने भुस्कुटे को
मुलशी पेटे में आने से रोक दिया। इसके बावजूद, भुस्कुटे ने 22 जनवरी के पहले इलाके
का एक चक्कर लगाया...सभी सत्याग्रही वहां इकट्ठा हो कर सामूहिक रूप से सत्याग्रह करने
वाले थे। योजना के अनुसार, चालीस स्वयंसेवक और पांच महिलाएं जुलूस के लिए बांध स्थल
पर इकट्ठा हुए। इन महिलाओं में भुस्कुटे की पत्नी और उनके मित्र घरेशास्त्री की पत्नी,
श्रीमती वैशम्पायन शामिल थी…स्वयंसेवकों के धरने की वजह से काम को रोकना पड़ा। बाद में,
इंस्पेक्टर शिंदे ने उन सभी को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पंद्रह दिनों के लिए जेल भेज
दिया गया और मामला अदालत में चलता रहा और उन सभी को जेल की सजा सुनाई गई। भुस्कुटे
को सबसे ज़्यादा सज़ा सुनाई गई - एक साल की जेल और पचास रूपए का जुरमाना और बाकी स्वयंसेवकों
को छह महीने की जेल की सजा सुनाई गई। महिलाओं और बच्चों पर पचास रुपए का जुर्माना लगाया
गया और जुर्माना न देने पर उन्हें तीन महीने के सामान्य कारावास की सजा भुगतनी थी।
सभी ने सज़ा को स्वीकार किया…
“हनुमान जयंती के शुभ दिन, कई महिलाओं और पुरुषों ने सत्याग्रह में भाग लिया।
उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और अदालत में उनके खिलाफ मुक़दमा चलाया गया…श्रीमती रमाबाई
कुलकर्णी (तलेगांव), श्रीमती पार्वतीबाई धोगड़े (तलेगांव), जानकीबाई घिसास (केलशी),
श्रीमती सत्यभामाबाई गोविदंराओ (वर्धा), इन सभी को सज़ा सुनाई गई।
“सत्याग्रह मेला: सेनापति ने स्वयंसेवकों द्वारा किए जा रहे सत्याग्रह, उन्हें
जेल भेजे जाने, उनकी रिहाई और जेल में उनके साथ किए गए अन्याय को लेकर एक अभियान शुरू
किया और उसके लिए चंदा जमा करना शुरू किया। यह मेला/जनसभा श्रीमती पार्वतीबाई (दादर)
की देखरेख में आयोजित की गई। उनके भाषण प्रभावी और परिणामकारी थे…
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